'MANISH'
yaara naal bahara
क्रांतिकारी राजगुरु सौन्दर्यपासक भी थे। आजादी की लड़ाई के दौरान राजगुरू को एक सुन्दर हसीन लड़की के चित्न वाला कैलेंडर मिला। उसे उन्होंने कमरे में टांग दिया और खुद पार्टी के किसी काम से बाहर चले गये।
महानक्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद तस्वीर देख कर नाराज हो गये। वह बोले उसे अगर छोकरियों की तस्वीरों से उलझना है तो रिवाल्वर पिस्तौल से उलझना छोड़कर घर चला जाये। दोनों काम एक साथ नहीं चल सकते। यह कह कर उन्होंने कैलेंडर के टुकड़े- टुकड़े करके उन्हें कूड़े के ढेर में फेंक दिया। जब राजगुरु वापस आये तो पहली निगाह दीवार की तरफ पड़ी। बोले, मेरा कैलेंडर कौन ले गया । एक साथी ने कूड़े के ढेर की तरफ इशारा कर दिया। किसने फाड़ा मेरा कैलेंडर, दो तीन फटे टुकड़े उठाते हुये उन्होंने ऊंचे स्वर में प्रश्न किया।
..मैंने फाड़ा है, आजाद ने उतने कड़े स्वर में उत्तर दिया। इतनी सुन्दर चीज आपने क्यों फाड़ दी। आजाद ने जवाब दिया-इसलिये कि वह सुन्दर थी। तो क्या आप हर सन्दर चीज को फाड़ देंगे .तोड़ देंगे।
..हां तोड दूंगा।
. .ताजमहल भी
.हां बस चलेगा तो उसे भी तोड़ दूंगा, आजाद ने तैश में आकर उत्तर दिया।
करीब एक मिनट खामोश रह कर राजगुरु धीमे स्वर में शब्दों को तौलते हुये बोले, खूबसूरत दुनिया बसाने चले हैं, खूबसूरत चीजों को तोड़कर, उन्हें मिटा कर, यह नहीं हो सकता।
राजगुरु के इन शब्दों ने आजाद का सारा गुस्सा ठण्डा कर दिया। उन्होंने कहा, ताज तोड़ने की बात तो तुम्हारे तैश के जवाब में कह गया भाई, मेरा मतलब वह नहीं था। हम लोगों ने किसी विशेष लक्ष्य के लिये घर बार छोड़ कर यह जिन्दगी अपनाई है। मैं इतना चाहता हूं कि हम लोग एक निष्ठ होकर उस लक्ष्य की ओर बढ़ते चले। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी यह सौन्दर्यपासना एक दिन प्रलोभन बन कर हमें अपने पथ से विमुख कर दे या हमारी किसी कमजोरी का कारण बने।
राजगुरु का जन्म 24 अगस्त १1908 को पूना के खेड़ा नामक गांव में हुआ था। क्रांतिकारी जीवन में राजगुरु अपना सबसे बडा प्रतिद्वंद्वी मानते थे शहीद-ए- आजम भगत सिंह को। यह राष्ट्र की स्वाधीनता संग्राम में आगे बढ़कर मौत के आचरण की प्रतिद्वंन्द्विता थी। कही इस होड़ में भगत सिंह पहले शहीद न हो जाये इसकी चिन्ता उन्हें हर समय लगी रहती थी। पार्टी के सामने उनकी एक ही मांग थी, हर काम में आगे बढ़कर पहली गोली चलाने का अवसर मुझे ही मिलना चाहिये। लाहौर में सांडर्स पर पहली गोली उन्होंने ही चलाई थी।
वह निशाना इतना अचूक था कि बाकी गोलियां अगर न भी चलाई गई होती तो भी सांडर्स का काम तमाम हो जाता। भगत सिंह से इस होड़ की भावना के अन्तर्गत उन्हें यह भी गवारा न था कि किसी
महत्वपूर्ण काम में भगत सिंह जाये और उन्हें न भेजा जाये।
राजगुरु ने गुप्त संगठनों के नियमों का खुला उल्लघंन किया और अपनी वाचाल मनोवृत्ति के शिकार भी हुये। वह जल्द से जल्द पूना में पार्टी का संगठन खड़ा करना चाहते थे। उसी धुन में जो भी सम्पर्क में आया उस पर सांडर्स की हत्या का राज खोलते चले गये। अन्त में एक गुप्तचर एजेंट की चालों मे फंस कर पुलिस के जाल में फंस गये।
फांसी की सजा सुनाये जाने पर कुछ सप्ताह पहले से राजगुरु काफी गम्भीर रहने लगे थे। वह हर घड़ी कुछ न कुछ सोचते रहते थे। उनके स्वभाव तथा व्यवहार में अचानक इस परिवर्तन से सभी चिन्तित थे। कुछ को यह भी कहते सुना गया कि मौत को देखकर अब राजगुरु परेशान हो उठा है।
एक दिन एक मित्न प्रभात ने राजगुर से पूछा क्या सोच रहे हो। राजगुर बोले यह बताओं दुनिया स्वर्ग है या नरक और सबसे हसीन चीज क्या है।
तब मित्न ने पूछा क्या मौत से डर रहे हो? जो कुछ किया है क्या उसके लिये पश्चाताप कर रहे हो। यह सुनकर राजगुरु गम्भीर हो गये और बोले, कम से कम तुमसे ऐसे सवाल की आशा नहीं थी प्रभात
। मैं मौत से नहीं डरता। इसे तुम अच्छी तरह जानते हो । मैं तो अपने अनुभव की बात तुमसे कह रहा था। गरीबी अभिशाप है और प्यार का अभाव नरक है। मौत को ललकार कर ही तो मैंने इस सत्य को पहचाना है। तुम क्या समझते हो अब अन्त में आकर मैं उससे मात खा जाऊगा। मैंने जो कुछ किया है उस पर मुझे उतना ही नाज है जितना सबको है। अपनी जिन्दगी देकर देश के करोड़ों नर नारियों को इस स्वर्ग के द्वार खोल कर उसकी खूबसूरती की एक झलक अगर हम दिखा सके तो बाकी काम तो वे स्वयं पूरा कर लेंगे। ऐसी हसीन मौत पर पछताने वाला मूर्ख ही कहा जायेगा। क्रांतिकारियों के लिये तो वह मुंह मांगा वरदान है।
फैसले का दिन आया और राजगुरु भगत सिंह तथा सुखदेव को फांसी की सजा सुना दी गयी। फांसी की कोठरी में राजगुरु का पुराना स्वभाव वापस आ गया। मजाक छेड़खानी और गाना फिर से चलने लगा।
23 मार्च 1931 की शाम को जब उनकी कोठरी खोली गयी तो उन्होंने जोर के नारे के साथ अपने साथियों को सूचना दी, चलने का समय आ गया है। फिर सूर्यास्त के साथ ही वह अपने दोनों साथियों
को लेकर नई दुनिया बसाने के उद्देश्य से स्वर्ग का द्वार खोलने चल दिये।
महानक्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद तस्वीर देख कर नाराज हो गये। वह बोले उसे अगर छोकरियों की तस्वीरों से उलझना है तो रिवाल्वर पिस्तौल से उलझना छोड़कर घर चला जाये। दोनों काम एक साथ नहीं चल सकते। यह कह कर उन्होंने कैलेंडर के टुकड़े- टुकड़े करके उन्हें कूड़े के ढेर में फेंक दिया। जब राजगुरु वापस आये तो पहली निगाह दीवार की तरफ पड़ी। बोले, मेरा कैलेंडर कौन ले गया । एक साथी ने कूड़े के ढेर की तरफ इशारा कर दिया। किसने फाड़ा मेरा कैलेंडर, दो तीन फटे टुकड़े उठाते हुये उन्होंने ऊंचे स्वर में प्रश्न किया।
..मैंने फाड़ा है, आजाद ने उतने कड़े स्वर में उत्तर दिया। इतनी सुन्दर चीज आपने क्यों फाड़ दी। आजाद ने जवाब दिया-इसलिये कि वह सुन्दर थी। तो क्या आप हर सन्दर चीज को फाड़ देंगे .तोड़ देंगे।
..हां तोड दूंगा।
. .ताजमहल भी
.हां बस चलेगा तो उसे भी तोड़ दूंगा, आजाद ने तैश में आकर उत्तर दिया।
करीब एक मिनट खामोश रह कर राजगुरु धीमे स्वर में शब्दों को तौलते हुये बोले, खूबसूरत दुनिया बसाने चले हैं, खूबसूरत चीजों को तोड़कर, उन्हें मिटा कर, यह नहीं हो सकता।
राजगुरु के इन शब्दों ने आजाद का सारा गुस्सा ठण्डा कर दिया। उन्होंने कहा, ताज तोड़ने की बात तो तुम्हारे तैश के जवाब में कह गया भाई, मेरा मतलब वह नहीं था। हम लोगों ने किसी विशेष लक्ष्य के लिये घर बार छोड़ कर यह जिन्दगी अपनाई है। मैं इतना चाहता हूं कि हम लोग एक निष्ठ होकर उस लक्ष्य की ओर बढ़ते चले। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी यह सौन्दर्यपासना एक दिन प्रलोभन बन कर हमें अपने पथ से विमुख कर दे या हमारी किसी कमजोरी का कारण बने।
राजगुरु का जन्म 24 अगस्त १1908 को पूना के खेड़ा नामक गांव में हुआ था। क्रांतिकारी जीवन में राजगुरु अपना सबसे बडा प्रतिद्वंद्वी मानते थे शहीद-ए- आजम भगत सिंह को। यह राष्ट्र की स्वाधीनता संग्राम में आगे बढ़कर मौत के आचरण की प्रतिद्वंन्द्विता थी। कही इस होड़ में भगत सिंह पहले शहीद न हो जाये इसकी चिन्ता उन्हें हर समय लगी रहती थी। पार्टी के सामने उनकी एक ही मांग थी, हर काम में आगे बढ़कर पहली गोली चलाने का अवसर मुझे ही मिलना चाहिये। लाहौर में सांडर्स पर पहली गोली उन्होंने ही चलाई थी।
वह निशाना इतना अचूक था कि बाकी गोलियां अगर न भी चलाई गई होती तो भी सांडर्स का काम तमाम हो जाता। भगत सिंह से इस होड़ की भावना के अन्तर्गत उन्हें यह भी गवारा न था कि किसी
महत्वपूर्ण काम में भगत सिंह जाये और उन्हें न भेजा जाये।
राजगुरु ने गुप्त संगठनों के नियमों का खुला उल्लघंन किया और अपनी वाचाल मनोवृत्ति के शिकार भी हुये। वह जल्द से जल्द पूना में पार्टी का संगठन खड़ा करना चाहते थे। उसी धुन में जो भी सम्पर्क में आया उस पर सांडर्स की हत्या का राज खोलते चले गये। अन्त में एक गुप्तचर एजेंट की चालों मे फंस कर पुलिस के जाल में फंस गये।
फांसी की सजा सुनाये जाने पर कुछ सप्ताह पहले से राजगुरु काफी गम्भीर रहने लगे थे। वह हर घड़ी कुछ न कुछ सोचते रहते थे। उनके स्वभाव तथा व्यवहार में अचानक इस परिवर्तन से सभी चिन्तित थे। कुछ को यह भी कहते सुना गया कि मौत को देखकर अब राजगुरु परेशान हो उठा है।
एक दिन एक मित्न प्रभात ने राजगुर से पूछा क्या सोच रहे हो। राजगुर बोले यह बताओं दुनिया स्वर्ग है या नरक और सबसे हसीन चीज क्या है।
तब मित्न ने पूछा क्या मौत से डर रहे हो? जो कुछ किया है क्या उसके लिये पश्चाताप कर रहे हो। यह सुनकर राजगुरु गम्भीर हो गये और बोले, कम से कम तुमसे ऐसे सवाल की आशा नहीं थी प्रभात
। मैं मौत से नहीं डरता। इसे तुम अच्छी तरह जानते हो । मैं तो अपने अनुभव की बात तुमसे कह रहा था। गरीबी अभिशाप है और प्यार का अभाव नरक है। मौत को ललकार कर ही तो मैंने इस सत्य को पहचाना है। तुम क्या समझते हो अब अन्त में आकर मैं उससे मात खा जाऊगा। मैंने जो कुछ किया है उस पर मुझे उतना ही नाज है जितना सबको है। अपनी जिन्दगी देकर देश के करोड़ों नर नारियों को इस स्वर्ग के द्वार खोल कर उसकी खूबसूरती की एक झलक अगर हम दिखा सके तो बाकी काम तो वे स्वयं पूरा कर लेंगे। ऐसी हसीन मौत पर पछताने वाला मूर्ख ही कहा जायेगा। क्रांतिकारियों के लिये तो वह मुंह मांगा वरदान है।
फैसले का दिन आया और राजगुरु भगत सिंह तथा सुखदेव को फांसी की सजा सुना दी गयी। फांसी की कोठरी में राजगुरु का पुराना स्वभाव वापस आ गया। मजाक छेड़खानी और गाना फिर से चलने लगा।
23 मार्च 1931 की शाम को जब उनकी कोठरी खोली गयी तो उन्होंने जोर के नारे के साथ अपने साथियों को सूचना दी, चलने का समय आ गया है। फिर सूर्यास्त के साथ ही वह अपने दोनों साथियों
को लेकर नई दुनिया बसाने के उद्देश्य से स्वर्ग का द्वार खोलने चल दिये।