Palang Tod
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भगत सिंह का नायिकत्व सबको अच्छा लगता है, पर कोई नहीं चाहता कि भगत सिंह जैसा बना जाए या अपने किसी बेटे-बेटी को उन जैसा बनाया जाए। लाहौर के इलाक़े से उनके जीवन और शहादत का संबंध होने के कारण पश्चिमी पंजाब में भी उनकी बहुत मान्यता है। पर भगत सिंह के बारे में सांझा तथ्य जो सबके मनों में उनका उच्च स्थान स्थापित करता है, वह है उनका अपनी जवानी में हंस कर फांसी का रस्सा चूमना।
23 मार्च के दिन का संबंध शहीदे आज़म की शहादत से है, वहीं साल के बाक़ी 364 दिनों का संबंध उच्च आदर्श को संर्पित उनके जीवन की सभी सरगर्मियों से है। जिस मौत के कारण वह हमारी याद में बसे हुए हैं, उस मौत का फैसला तो बर्तानवी साम्राज्य की नौकरशाही ने किया था। अगर इस फैसले को नौकरशाही मौक़े पर ही रद्द कर देती, तो शायद हमें आज भगत सिंह का नाम भी पता न होता। कारण यह है कि जिस भगत सिंह को ख़ुद भगत सिंह ने सृजत किया था, उससे हमारा वास्ता नहीं है। हम बुत सृजन और उसकी पूजा से ही जीना जानते हैं। पढ़ना, गुढ़ना, जानना या समझना हमारे लिए बहुत मुश्किल काम है।
हम भगत सिंह को सिर्फ़ निडर और हिंसक योद्धा के रूप में ही स्थापित करते हैं। बहुत सूक्षम और संवेदनशील मन वाले भगत सिंह हमारी चेतना का भाग नहीं बन सके। 1923-24 में जब पहली बार वह घर से कानपुर जाकर गणेश शंकर विद्यार्थी के ‘प्रताप’ अख़बार में काम करने लगे, तो वहां बीके दत्त, चंद्रशेखर आजाद , जयदेव कपूर, रामप्रसाद बिसमिल, शिव वर्मा इत्यादि इनक़लाबियों से मेल हुआ। यहां पार्टी के लिए किसी गांव में डाका डालने जाना था। इस घटना ने भगत सिंह के मन को द्रवित कर दिया। वह बहुत रोए और कहने लगे, ‘आजाद भारत की क्या तमना लेकर हम इस तरह के कामों में भटकते फिरते हैं। यह जबर्दस्ती हथियारों के बल पर पार्टी के लिए पैसे इकट्ठे करना, हमें आजाद भारत की कैसी तस्वीर देगा?’ इस सवाल के जवाब की खोज शुरू हुई। इसी खोज की दृष्टि से रूस, आयरलैंड, इटली इत्यादि देशों में चले संघर्षो की कहानियों का विश्लेषण किया गया। इस तरह भगत सिंह ने इंक़लाब के रास्ते पर चलने से पहले ख़ुद को बमों, पिस्तौल या गोलियों से लैस करने की जगह, अध्ययन से लैस किया।
वह लिखते हैं- ‘अध्ययन करने के अहसास की तरंगे मेरे मन में उभरती रहीं। अध्ययन कर, ताकि तुम अपने विरोधियों की दलीलों का जवाब दे सकने के योग्य हो सको। अपने सिद्धांत की हिमायत में दलीलों से अपने आपको लैस करने के लिए अध्ययन कर। मैंने अध्ययन करना शुरू कर दिया। मेरे पहले विश्वासों में बड़ा बदलाव आ गया। हमसे पहले वाले इंकलाबियों में सिर्फ़ तशद्द के तौर-तरीक़ों का रोमांस इतना भारी था, अब उसकी जगह गंभीर विचारों ने ले ली थी।’
भगत सिंह जनसाधारण के दुखों और समकालीन लोक-लहरों से गहरे कहीं जुड़े हुए थे। गुरुद्वारा सुधार लहर के तहत 1924 में जैतो के मोर्चे के दौरान जत्थे जैतो जा रहे थे। सरकार की तरफ़ से पाबंदी थी कि इन जत्थों को पानी न पिलाया जाए। भगत सिंह अपने गांव बंगे के लोगों को लामबंद करके लंगर तैयार करवाकर खेतों में छुपाकर रख लेते हैं, क्योंकि पुलिस की तरफ़ से नाकाबंदी की गई थी। वह शहीदी जत्थे को लंगर भी छकाते हैं और बहुत प्रभावशाली लैक्चर भी देते हैं। इसके बदले उनके वारंट निकले। वह दोबारा कानपुर चले गए। जब कानपुर में भयानक बाढ़ आई, तो उन्होंने आगे आकर बाढ़ पीढ़ितों की सेवा, सहायता की। उन सभी साथियों के विचारों को जानना बहुत ज़रूरी है।
असैंबली बम कांड के साथी बीके दत्त को भगत सिंह ने लाहौर जेल से ख़त लिखा था- ‘मुझे फांसी की और तुम्हें उम्र क़ैद की सज़ा मिली है। तुम ज़िंदा रहोगे और ज़िंदा रहकर दुनिया को यह दिखाना है कि इंक़लाबी अपने आदशरें के लिए सिर्फ़ मर की नहीं सकते, बल्कि ज़िंदा रहकर हर मुश्किल का मुक़ाबला भी कर सकते हैं। मौत दुनियावी मुश्किलों से छुटकारा पाने का साधन नहीं होनी चाहिए।’
23 मार्च के दिन का संबंध शहीदे आज़म की शहादत से है, वहीं साल के बाक़ी 364 दिनों का संबंध उच्च आदर्श को संर्पित उनके जीवन की सभी सरगर्मियों से है। जिस मौत के कारण वह हमारी याद में बसे हुए हैं, उस मौत का फैसला तो बर्तानवी साम्राज्य की नौकरशाही ने किया था। अगर इस फैसले को नौकरशाही मौक़े पर ही रद्द कर देती, तो शायद हमें आज भगत सिंह का नाम भी पता न होता। कारण यह है कि जिस भगत सिंह को ख़ुद भगत सिंह ने सृजत किया था, उससे हमारा वास्ता नहीं है। हम बुत सृजन और उसकी पूजा से ही जीना जानते हैं। पढ़ना, गुढ़ना, जानना या समझना हमारे लिए बहुत मुश्किल काम है।
हम भगत सिंह को सिर्फ़ निडर और हिंसक योद्धा के रूप में ही स्थापित करते हैं। बहुत सूक्षम और संवेदनशील मन वाले भगत सिंह हमारी चेतना का भाग नहीं बन सके। 1923-24 में जब पहली बार वह घर से कानपुर जाकर गणेश शंकर विद्यार्थी के ‘प्रताप’ अख़बार में काम करने लगे, तो वहां बीके दत्त, चंद्रशेखर आजाद , जयदेव कपूर, रामप्रसाद बिसमिल, शिव वर्मा इत्यादि इनक़लाबियों से मेल हुआ। यहां पार्टी के लिए किसी गांव में डाका डालने जाना था। इस घटना ने भगत सिंह के मन को द्रवित कर दिया। वह बहुत रोए और कहने लगे, ‘आजाद भारत की क्या तमना लेकर हम इस तरह के कामों में भटकते फिरते हैं। यह जबर्दस्ती हथियारों के बल पर पार्टी के लिए पैसे इकट्ठे करना, हमें आजाद भारत की कैसी तस्वीर देगा?’ इस सवाल के जवाब की खोज शुरू हुई। इसी खोज की दृष्टि से रूस, आयरलैंड, इटली इत्यादि देशों में चले संघर्षो की कहानियों का विश्लेषण किया गया। इस तरह भगत सिंह ने इंक़लाब के रास्ते पर चलने से पहले ख़ुद को बमों, पिस्तौल या गोलियों से लैस करने की जगह, अध्ययन से लैस किया।
वह लिखते हैं- ‘अध्ययन करने के अहसास की तरंगे मेरे मन में उभरती रहीं। अध्ययन कर, ताकि तुम अपने विरोधियों की दलीलों का जवाब दे सकने के योग्य हो सको। अपने सिद्धांत की हिमायत में दलीलों से अपने आपको लैस करने के लिए अध्ययन कर। मैंने अध्ययन करना शुरू कर दिया। मेरे पहले विश्वासों में बड़ा बदलाव आ गया। हमसे पहले वाले इंकलाबियों में सिर्फ़ तशद्द के तौर-तरीक़ों का रोमांस इतना भारी था, अब उसकी जगह गंभीर विचारों ने ले ली थी।’
भगत सिंह जनसाधारण के दुखों और समकालीन लोक-लहरों से गहरे कहीं जुड़े हुए थे। गुरुद्वारा सुधार लहर के तहत 1924 में जैतो के मोर्चे के दौरान जत्थे जैतो जा रहे थे। सरकार की तरफ़ से पाबंदी थी कि इन जत्थों को पानी न पिलाया जाए। भगत सिंह अपने गांव बंगे के लोगों को लामबंद करके लंगर तैयार करवाकर खेतों में छुपाकर रख लेते हैं, क्योंकि पुलिस की तरफ़ से नाकाबंदी की गई थी। वह शहीदी जत्थे को लंगर भी छकाते हैं और बहुत प्रभावशाली लैक्चर भी देते हैं। इसके बदले उनके वारंट निकले। वह दोबारा कानपुर चले गए। जब कानपुर में भयानक बाढ़ आई, तो उन्होंने आगे आकर बाढ़ पीढ़ितों की सेवा, सहायता की। उन सभी साथियों के विचारों को जानना बहुत ज़रूरी है।
असैंबली बम कांड के साथी बीके दत्त को भगत सिंह ने लाहौर जेल से ख़त लिखा था- ‘मुझे फांसी की और तुम्हें उम्र क़ैद की सज़ा मिली है। तुम ज़िंदा रहोगे और ज़िंदा रहकर दुनिया को यह दिखाना है कि इंक़लाबी अपने आदशरें के लिए सिर्फ़ मर की नहीं सकते, बल्कि ज़िंदा रहकर हर मुश्किल का मुक़ाबला भी कर सकते हैं। मौत दुनियावी मुश्किलों से छुटकारा पाने का साधन नहीं होनी चाहिए।’