गाँव अपना

Saini Sa'aB

K00l$@!n!
गाँव अपना

पहले इतना
था कभी न
गाँव अपना
अब पराया हो गया।
खिलखिलाता
सिर उठाए
वृद्ध जो, बरगद
कभी का सो गया।

अब न गाता
कोई आल्हा
बैठकर चौपाल में
मुस्कान बन्दी
हो गई
बहेलिए के जाल में

अदालतों की
फ़ाइलों में
बन्द हो,
भाईचारा खो गया।

दौंगड़ा
अब न किसी के
सूखते मन को भिगोता
और धागा
न यहाँ
बिखरे हुए मनके पिरोता

कौन जाने
देहरी पर
एक बोझिल
स्याह चुप्पी बो गया।
 
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