पिता गाँव में

Saini Sa'aB

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पिता गाँव में
पूत शहर में
पर दोनों ही दुख के घर में

पूत उलझकर खीझ रहा है
रोज दिहाड़ी से
बूढ़े कंधे दुखिया
घर की बोझिल गाड़ी से
धुँधलाई
आँखों में सपने
बड़ी उड़ानें छोटे घर में

छठे छमासे चिट्ठी पत्री
आती जाती है
ममता सूने दीपक
जलती बुझती बाती है
बीत रही
है उमर खीझ में
हार रहे हैं पाँव डगर में

गाँव शहर दोनों
गरीब को रूई सा धुनते
नहीं देखते आँसू
उनकी आह नहीं सुनते
धिया जुलाहे
की न उसे सुख
हो सासुर में या पीहर में
 
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