Saini Sa'aB
K00l$@!n!
महाकाल के इस प्रवाह में
महाकाल के इस प्रवाह में
यत्नहीन बहते जाना ही -
सचमुच क्या अपना होना है?
वय के बंजर हिस्से में,
देख रहा हूं अपने को मैं -
पीछे जाकर
दो कौड़ी के, माटी के उस -
घड़े सरीखा ठोक, बजाकर
देख रहा हूं
जीवन के इस सार्थवाह में,
लगातार चलते जाना ही
क्या सचमुच अपना होना है?
इनकी, उनकी निगरानी में रहते आये
लगता जैसे सात पुश्त से
बनिक न पाये हाट प्रेम के,
लुटा न पाये मुक्त हस्त से,
रह न सका मैं ख्वाबगाह में
इस प्रवाह में महाकाल में
क्या अपने को दुहराना ही
अंतिम सांसों तक होना है?
महाकाल के इस प्रवाह में
यत्नहीन बहते जाना ही -
सचमुच क्या अपना होना है?
वय के बंजर हिस्से में,
देख रहा हूं अपने को मैं -
पीछे जाकर
दो कौड़ी के, माटी के उस -
घड़े सरीखा ठोक, बजाकर
देख रहा हूं
जीवन के इस सार्थवाह में,
लगातार चलते जाना ही
क्या सचमुच अपना होना है?
इनकी, उनकी निगरानी में रहते आये
लगता जैसे सात पुश्त से
बनिक न पाये हाट प्रेम के,
लुटा न पाये मुक्त हस्त से,
रह न सका मैं ख्वाबगाह में
इस प्रवाह में महाकाल में
क्या अपने को दुहराना ही
अंतिम सांसों तक होना है?