कविता

1

(रात के पिछले पहर में
स्वप्न टूटा ।
दीप की लौ आखिरी-सा
उस समय था
भोर का तारा टिमकता ।
चाँद की टूटी लहर में
तैरती-सी दिख गयीं अरुणाभ किरनें …)
--बार-बार मैंने यह सोचा :
चलो, आज से नयी ज़िन्दगी शुरू हुई ।

एक लड़ाई लड़ी, खतम की

आगे की मंज़िल, पहले की मंज़िल से
है कुछ तो भिन्न, भिन्न, और शायद विच्छिन्न ।
तबसे बीत गये कितने ही लम्बे-आड़े-तिरछे वर्ष ।

लेकिन पाता हूं-
अब भी हैं : वही, वही, वे ही संघर्ष ।
जो पहले था, वही आज हैं-
वही स्वप्न, वे ही आदर्श ।

2

(हाय । कैसी थी कहानी ।
अश्रु के भीगे कणों से,
प्यार के मीठे क्षणों से रची
वह कैसी कहानी ।
कौन जाने कब सुनी थी,
कहाँ की थी, और किसकी ?
किन्तु अब भी बची
वह कैसी कहानी ?…)

-कितनी बार किया यह निश्चय :
अब किताब को पढकर रोना खत्म हुआ ।
एक उम्र थी: नहीं रही ।
अब किताब को पढकर सिर्फ़ विचारेंगे,
बिसरा देंगे ज़्यादातर, थोड़ा-सा मन में धारेंगे ।

लेकिन यह सब नहीं हुआ ।
उसको ‘कृत्रिम’ कहा अगर,
‘यह’ ज़्यादा कृत्रिम जान पड़ा ।
सहज बनूँ कैसे ?

उधेड़बुन यही शुरु से थी :
अब भी ।

3

(कितनी अकेली राह थी,
कैसा अकेला साथ था ।
बेहद थके, डगमग क़दम ।
लेकिन
कहाँ वह हाथ था—
जो बढे आगे, थाम ले । …)

--हुआ नहीं कोई भी अपना ।
नहीं टूटता पर वह सपना ।
बार-बार जो सोच रहे थे हम
कि अकेले ही रह लेंगे ।
चलो, अकेले ही रह लेंगे ।

बार-बार वह झूठा निकला :
एक न एक चाँद मुस्काया किया,
ज्वार बनकर मैं उमड़ा ।

4

(राग का जादू हिरन पर छा गया ।
वह कुलाँचें मारनेवाला
खिंचा-सा आ गया…)

--कई बार यह हुआ कि
अब संगीत सुनेंगे कभी नहीं ।
मोहक जो संगीत कहाता : मुझको

सिर्फ़ उबाता है ।

गहराई से खींच, धरातल पर मुझको

ले आता है ।

लेकिन जब भी, जब भी
काँपे थरथर-थरथर तार,
और उमड़ी-लहराई स्वर की करुणा-धार

काँपने लगे होंठ हर बार,
धड़कने लगे प्राण के तार ।

5

(एक घर था
और उसके द्वार में ताला जड़ा था ।
बन्द घर को कौन खोले ।
स्तब्धता में कौन बोले । …)

--ऊँचे शिखरों के प्रति मेरी वृहत कल्पना
बार-बार रह गई सिर्फ़ टेढी-मेढी, सँकरी गलियों तक

इनसे बाहर हटकर, उठकर
किसी अपरिचित ऊँचाई तक जाने की
जो साध बड़ी थी,
उसके आगे एक अजब दीवार…

1

…एक बार का सोचा-समझा
बार-बार क्यों सच लगता ?
बीच-बीच में ‘झूठ’ समझकर भी
क्यों उसमें मन रमता ।
आज : ‘झूठ’, कल : ‘सच’ दिखनेवाली माया का अन्त कहाँ ?

2

स्वप्न वहाँ हैं
और यहाँ पर परिणति है ।
कृत्रिम उधर
और आवेगों की क्यों इधर अपरिमिति है ?

3

कौन कहाँ से आया
इसका तो कुछ भी आभास नहीं ।
एक मुझी में इतना सब कुछ था
यह भी विश्वास नहीं ।

4

क्यों दुहराया तुमने उसको
कहो, उसे क्यों दुहराया ?
भूल नहीं पाये क्यों इसको ?
भूलो, अब तो भूलो सब ।

5

जो दीवारें थीं लोहे की,
वे दीवारें हैं लोहे की,
जैसी थीं वे, वैसी ही हैं ।
-ऊँचे सिखर किन्तु अब उतने ऊँचे नहीं रहे ।
पुनरावर्तन, प्रत्यावर्तन किसने नही सहा।
लेकिन
लौटे हुए व्यक्ति के लिये
शिखर तक जाना
उतना दुर्लभ नहीं रहा ।
 
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