कविता

व्याकुलता अब भी वैसी ही है ।

अन्तर बस इतना है—

पहले वह होती थी रोज़-रोज़,
तब हर अन्यायी को खोज-खोज
लड़ने को मुट्ठी तन जाती थी ।

और आज—

सुख-सुविधा की चिन्ता, कामकाज
में फँसकर
चार-छै महीनों में एक बार
होती है ।

किन्तु आज भी है वह दुर्निवार ।
अब भी मेरी आत्मा वैसे ही रोती है ।
 
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