कविता

पूछताछ के दफ़्तर में
हम गए ।


वहाँ था काम यही
जो आए, पा जाए हरदम सूचना सही ।

हमने जो पूछा- सब जाना,
जो जाना उसको सच माना :

ऐसा सच-
जो व्यापित हो कल्पों में, युग में, संवत्सर में ।
हाँ, पूछताछ के दफ़्तर में
हम गए ।

हम जान गये- गाड़ी आती है सात बजे,
नौ... दस...ग्यारह बज गए

मगर गाड़ी का पता नहीं पाया ,
हम मान गए-- दो-दो मिल चार बनाएंगे,

अरसे तक करते रहे
किन्तु, हमको वह प्रश्न नहीं आया :

अस्पष्ट भाव कुछ
व्यक्त किए हमने अपने कुंठित स्वर में ।
जब पूछताछ के दफ़्तर में ।
हम गए ।

गए थे, वापस भी आए,

पूछते हो-- 'क्या-क्या लाए ?'

अरे, लाए क्या- बस, अनुभव,
और भी जिज्ञासाएँ नव,
कि जिनके समाधान सब भ्रान्त,
सभी कुछ मिथ्या से आक्रान्त ,
प्रश्न अनगिनती, उत्तर एक ,
और अपने मन की यह टेक :
भला होता
जो रहते अपने ही घर में ।

आह । क्यों ? पूछताछ के दफ़्तर में हम गए ?
 
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