कविता

नहीं कभी जागे ऊषा की स्वर्णिम वेला में

-नींद हमारी खुली हमेशा आठ बजे ।

नहीं कभी घूमे उपवन में, नदियों के तट पर

-शामें बीतीं बहसें करते या लिखते-पढते ।

तितली के रंगों को हमने देखा नहीं कभी,

कोयल में, बुलबुल में कोई फ़र्क न कर पाये ।

चातक और पपीहे के स्वर कानों में न पड़े

-स्वर भी, हम भी : सँकरी गलियों में भूले-भटके ।

जाना नहीं कि सरसों का रंग कैसा होता है,

-जब बसंत आया : हम जैसे अन्धे बने रहे ।

सावन में फ़ुरसत ही पाई नहीं मिनट भर की

-घर की सीलन, छत की टपकन ने उलझा रक्खा ।

सचमुच हम थे कितने झूठे, कैसे धोखेबाज ।
कहते फिरे हमेंशा जो सबसे-
'हमें बहुत प्रिय है सौन्दर्य ।
सुन्दरता के लिए हमारा जीवन अर्पित है ।'

'हम कुरूपता को धरती पर देख नहीं सकते,
हम सुन्दरता के प्रेमी हैं ।'-

ऐसा कहनेवाले हम थे कितने झूठे, कैसे धोखेबाज़।
 
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