Saini Sa'aB
K00l$@!n!
आदमी...बौना हुआ है
प्रगति की लंबी छलाँगें मारकर भी
आदमी क्यों इस क़दर बौना हुआ है?
बो रहा काँटे
भले चुभते रहें वे,
पीढ़ियों के
पाँव में गड़ते रहें वे,
रोशनी को छीनकर बाँटें अंधेरा,
राह में अंधा हर एक कोना हुआ है।
मेड़ ही
अब खेत को खाने लगी है
और बदली
आग बरसाने लगी है,
अब पहरुए ही खड़े हैं लूटने को,
मौसमों पर, हाँ, कोई टोना हुआ है।
क्षितिज के
उस पार जाने की ललक में,
नित
कुलाँचें ही भिड़ाता है फलक में,
एक बनने को चला था डेढ़, पर वह
हो गया सीमित कि अब पौना हुआ है।
प्रगति की लंबी छलाँगें मारकर भी
आदमी क्यों इस क़दर बौना हुआ है?
बो रहा काँटे
भले चुभते रहें वे,
पीढ़ियों के
पाँव में गड़ते रहें वे,
रोशनी को छीनकर बाँटें अंधेरा,
राह में अंधा हर एक कोना हुआ है।
मेड़ ही
अब खेत को खाने लगी है
और बदली
आग बरसाने लगी है,
अब पहरुए ही खड़े हैं लूटने को,
मौसमों पर, हाँ, कोई टोना हुआ है।
क्षितिज के
उस पार जाने की ललक में,
नित
कुलाँचें ही भिड़ाता है फलक में,
एक बनने को चला था डेढ़, पर वह
हो गया सीमित कि अब पौना हुआ है।