यहां सिख राज्य की रखी गई नींव

महाभारत का गवाह रही कुरुक्षेत्र की माटी का रंग आज भी लाल है। हर युद्धस्थल की माटी सदियों तक कुछ खास घटनाओं की गवाह बनी रहती है।

तीन सौ साल पहले 12 मई, 1710 को चप्पड़ चिड़ी के मैदान में बाबा बंदा सिंह बहादुर और सरहिंद के नवाब वजीर खान के बीच हुए फैसलाकुन युद्ध, जिसने सिख राज्य की आधारशिला रखी, की गवाही भी यहां की मिट्टी से मिलती है। आज भी यहां मानव हड्डियां निकलती हैं।

अब इस बंजर भूमि पर गुरुद्वारा फतेह जंग साहिब निर्माणाधीन है। सरपंच जोरावर सिंह के भाई बुजुर्ग एनआरआई गुरदीप सिंह भुल्लर बताते हैं-पूर्व की ओर से बाबा बंदा सिंह की फौजें चली आ रही थीं। हालांकि चार दिन पहले बंदा सिंह ने सरहिंद के नवाब को रुक्का भेज दिया था कि वह सरहिंद छोड़कर चले जाएं लेकिन वह नहीं माना और बंदा बहादुर से लोहा लेने यहां चला आया। ये ठीक वही जगह है जहां दाईं ओर से नवाब की फौजों ने प्रवेश किया।

12 मई को पौ फटते ही एक दूसरे पर टूट पड़े। बाबा बंदा बहादुर के साथ भाई बिनोद सिंह, भाई बाज सिंह और भाई फतेह सिंह थे। नवाब के साथ मालेरकोटला का नवाब शेर मोहम्मद खान भी था। वजीर खान को गुमान था कि वह सिखों की मामूली हथियारों से लैस फौज को पल छिन में धूल चटा देगा, लेकिन साढ़ौरा की जीत के बाद गद्गद् हुई सेना ने जब लौहगढ़ किले पर अधिकार जमा लिया तो उसे तैयारी के लिए पूरा वक्त मिल चुका था।

इस तरह यहां हुए भयानक युद्ध में बंदा बहादुर के साथी भाई बाज सिंह ने वजीर खान के घोड़े पर हमला किया तो वजीर खान उसपर पलटकर वार करने ही जा रहा था कि फतेह सिंह ने इतनी जोर से अपनी तलवार उसपर फेंकी कि उसका शरीर कंधे से कमर तक कट गया। जो वजीर खान जीतने आया था उसकी लाश को यहां घोड़ों से बांधकर सरहिंद की गलियों तक घसीटा गया।

सरहिंद को लूटकर सिखों ने अपनी ताकत को और मजबूत किया। इसी ताकत के बल पर उन्होंने मुग़लिया सल्तनत को ललकारा। असल में सिख राज की नींव 12 मई, 1710 को ही रखी गई। इसी आधार पर बाद में दल खालसा का जन्म हुआ, फिर मिसलें वजूद में आई और आखिर 1799 में महाराजा रणजीत सिंह ने लाहौर फतेह कर सिख राज्य की स्थापना पर मोहर लगा दी।

पंजाब स्कूल एजूकेशन बोर्ड के रिटायर्ड अधिकारी राजिंदर सिंह तुड़ जिनका यहां ननिहाल है, ने बताया कि महज चार साल पहले तक यहां इस मैदान की कोई पहचान नहीं थी। बचपन में यहां झाड़ियां और कीकर के पेड़ ही देखे हैं। अब यहां गुरुद्वारा बन रहा है तो इस स्थान को ग्लोबल पहचान मिली है।

राज्यस्तरीय समारोह के प्रभारी अकाली नेता अमरीक सिंह बताते हैं कि निर्माणाधीन गुरुद्वारे में दो दिन पहले श्री गुरुग्रंथ साहिब का प्रकाश कर दिया गया है। गुरुद्वारा साहिब के नाम 14 एकड़ जमीन है जबकि बाबा बंदा बहादुर स्मारक के लिए सरकार ने चार दिन पहले ही 20 एकड़ भूमि खरीदी है।

बंदा बहादुर और उसका पंजाब आने का मकसद

जम्मू के राजौरी में 1670 राजपूत परिवार में जन्मे लक्ष्मण दास को बचपन से शिकार और घुड़सवारी का शौक था। एक बार हिरनी का शिकार किया, उसे मरते देख विचलित हो उठा और बाबा जानकी दास बैरागी की शरण में जाकर माधोदास बन गया। फिर वह घुमंतरु होकर कब महाराष्ट्र में गोदावरी के किनारे डेरा जमा बैठा, पता ही नहीं चला।

1708 में दसवें गुरु गोबिंद सिंह भी पंजाब में अपने चारों बेटों की शहादत के लिए नांदेड़ पहुंचे। किंवदंती के अनुसार बंदा को कुछ गैबी शक्तियां हासिल हो चुकी थीं जिनके बल पर वह किसी को भी हरा व डरा सकता था। गुरु गोबिंद सिंह उधर से गुजरे तो उसने उन्हें भी डराने की कोशिश की, मगर बेकार। आखिर में वह गुरु जी के पांवों में गिर गया।

उन्होंने पूछा कि नाम क्या है तो बोला-मैं तो आपका बंदा हूं। गुरु जी ने गले लगा लिया और उसे नया नाम दिया गुरबख्श, लेकिन वह बंदा बहादुर के नाम से मशहूर हो गया। गुरु गोबिंद सिंह ने उसकी पीठ पर हाथ रखकर अपना उत्तराधिकारी बना सरहिंद भेजा जहां नवाब वजीर ख़ान ने उनके छोटे साहिबजादे बाबा जोरावर सिंह और बाबा फतेहसिंह को शहीद किया था।

गुरु से पांच तीर और पांच साथी लेकर बंदा पंजाब की और कूच कर गया और देखते ही देखते उनसे समाना, साढौरा, आदि में घमासान मचाने के बाद सरहिंद फतेह कर 12 मई, 1710 को उसने वजीर खान से हिसाब चुकता कर लिया। इस महान फतेह की त्रिशताब्दी विश्वभर के सिख मना रहे हैं।
 
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