शहीदों के सरताज

जुल्म के सामने सब्र की जीत के प्रतीक। पूरी मनुष्यता को एक सूत्र में बांधने वाले और समानता चाहने वाले। सद्गुणों से भरपूर। बाणी के बोहिथा। सत्गुरु अर्जन देव की शहादत दुनिया भर में मिसाल है। उनकी शहादत सच के पक्ष में गवाही है और जुल्म के विरुद्ध अद्भुत बग़ावत है।

उनका पूरा जीवन मनुष्यता और बाणी को समर्पित रहा है। उन्होंने अपने समय के समाज को जिस तरह से समझा और कई तरह के विरोध के बावजूद समाज सुधार का कार्य जारी रखा, रहती दुनिया तक याद किया जाएगा। मनुष्य को अंधकार से उजाले की ओर लेजाने वाले फ़लसफ़े और बाणी को गुरु अर्जन देव जी ने ही संपादित कर मानव जाति को ‘श्रीगुरु ग्रंथ साहिब’ अमूल्य ख़êाने के रूप में भेंट किया।

इस संपादन में उन्होंने जिस तरह बाणी का चुनाव किया, अपने आप में बेमिसाल है। उनकी शहादत सदियों तक हमारा रास्ता रौशन करती रहेगी। वह शहीदों के सरताज हैं। लाहौर में साहिब श्रीगुरु अर्जन देव महाराज की शहादत से संबंधित दो स्थान मौजूद हैं। एक गुरुद्वारा डेहरा साहिब, जहां रावी किनारे गुरु साहिब ज्योति-ज्योत समाए थे औद दूसरा चंदू की हवेली की कोठड़ी, जहां गुरु अर्जन देव जी को तसीहे दिए जाते रहे और उसी हवेली का कुआं, जहां गुरु जी स्नान किया करते थे।

गुरुद्वारा डेहरा साहिब

गुरुद्वारा डेहरा साहिब, शाही क़िला लाहौर के बिल्कुल सामने और शाही मस्जिद के नजदीक है। पिछले समयों में दरिया रावी शाही क़िले की दीवार से लगकर बहता था। इस स्थान पर दरिया रावी के किनारे साहिब श्रीगुरु अर्जन देव जी गुरमति के नियमों की रक्षा करते हुए सत्य प्रतिज्ञा की कसौटी पर सिखों को अचल रहने का उपदेश देते हुए ज्योति-ज्योत समाए।

1619 ईस्वी में श्रीगुरु हरिगोबिंद साहिब जी गुरु-अस्थानों के दर्शन करने आए, तो उन्होंने शहीदी स्थान पर यादगारी थड़ा तैयार करवा दिया। सिख राज के समय महाराजा रणजीत सिंह ने इस गुरुद्वारा का नवनिर्माण कराया। पर गुरुद्वारा की ईमारत छोटी ही रही। महाराजा ने गुरुद्वारा साहिब के नाम गांव नंदीपुर जिला स्यालकोट तहसील डसका की 589 बीघा रक़बा जागीर लगवाई।

सिख राज्य के समय गुरुद्वारा को 50 रुपए वाषिर्क गांव कुतबा तहसील कसूर और नब्बे रुपए वार्षिक रियासत नाभा की तरफ़ से मिलते रहे। 1909 ई. में प्रकाश स्थान के लिए मौजूदा हाल कमरे का निर्माण कराया गया। 21 अप्रैल 1930 ई. में इस गुरुद्वारे की सेवा एक बार फिर आरंभ हुई, जो 9 सितंबर 1934 ई. को संपूर्ण हुई। गुरुद्वारा साहिब के दोनों तरफ़ जगह कच्ची थी, जो पक्की की गई। श्रद्धालुओं की लगातार बढ़ रही रौनक को ध्यान में रखते हुए, लंगर हाल के पीछे साईं मियां मीर सराय का निर्माण कराया गया।

‘महान कोश’ में वर्णित है कि इस गुरुद्वारे में देश के बंटवारे से पहले गुरु गोबिंद सिंह जी का दंदखंड का एक कंघा होता था, जिसके चालीस दांतों में से दो टूटे हुए हैं। मौजूदा समय में रोजाना गुरुद्वारा में गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश किया जाता है। इवैक्यू ट्रस्ट प्रॉप्र्टी (ईटीपीबी) द्वारा दो ग्रंथी पक्के तौर पर नियुक्त किए गए हैं और भारत से गए श्रद्धालुओं की देखभाल के लिए एक केयर टेकर भी नियुक्त किया गया है। गुरुद्वारा डेहरा साहिब को लाहौर वाले यादगार कहकर संबोधित करते हैं। पाकिस्तान गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी का कार्यालय भी इसी गुरुद्वारा में है।

गुरुद्वारा लाल कुआं साहिब

गुरुद्वारा लाल कुआं लाहौर के मोची दरवाजो के अंदर (पानी वाले तालाब के पीछे) शिया मोहल्ले में है। इतिहासकारों के अनुसार यह कुआं अहंकारी दीवान चंदू की हवेली में था। 1606 ई. में गिरफ्तारी के समय श्रीगुरु अर्जन देव जी यहीं स्नान किया करते थे। इस जगह पर ही श्रीगुरु अर्जन देव जी को चंदू ने अनेक तसीहे दिए। गर्म रेत गुरु जी के सीस पर डाली गई और गर्म लोह पर बिठाया गया। पर गुरु जी ने प्रभु हुक्म को सत्य जानकर माना।

जब 1619 ई. में गुरु हरिगोबिंद साहिब जी लाहौर आए, तो सिखों ने चंदू दुष्ट के नाक में नकेल डालकर बाजारों में घुमाया। जब चंदू इस हालत में कुएं के पास पहुंचा, तो भड़भूंजे, जिसने गुरु महाराज पर रेत डाली थी, ने अपना वही कड़छा चंदू के सिर पर मारा, जिससे चंदू ने गुरुजी के सीस पर गर्म रेत डलवाई थी। बाद में इस जगह पर गुरुद्वारा बनाया गया। पहले गुरुद्वारा बहुत छोटा था, फिर साथ लगते मकान संगतों ने माया एकत्र करके ख़रीदे और गुरुद्वारा की विशाल ईमारत का निर्माण किया। इस गुरुद्वारा के नाम पर एक दुकान, 21 कनाल 14 मर्ले जमीन गांव खोखर में थी। देश के बंटवारे से पहले यहां तीस-चालीस गूंगे भी रहते थे।

मौजूदा समय में मोची दरवाजो के अंदर रहने वालों को इस गुरुद्वारा के संबंध में कोई जानकारी नहीं है और ना ही लाहौर के किसी भी रिकॉर्ड में इस संबंध में कोई जानकारी दर्ज है। आज लाहौर और साथ वाले शहरों में लाल कुआं सिर्फ़ लाल कुएं के लिए ही प्रसिद्ध है। इसलिए हमारे लोगों की कोशिश होनी चाहिए कि हम इस धरोहर से अपने लोगों को अवगत करवाएं और प्रेरित करें कि वहां दूसरे धार्मिक स्थानों के साथ-साथ इस जगह के भी दर्शन ज़रूर करके आएं। गुरु जी की शहादत के दिन बहुत सारे पंजाबी वहां जा रहे हैं, उन्हें तो ख़ास तौर पर वहां जाना चाहिए। यह हमारा गुरु जी को नम्न होगा।
 

pps309

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Thanks for the article.

Guru Arjun Dev ji will always be remembered as the Kings of martyrs.
Their compilation of Adi Granth is priceless gift to humanity and Sikhs in particular.

"Shri Guru Granth Sahib ji da satkar, ohna de pawan sarup de parkash nu Guru Sahib di pargat deh man-na te Guru Granth Sahib ji de hukamnameya te chalna hi ik sikh di Guru Sahib lai sachi sardhanjali hai."
 

Saini Sa'aB

K00l$@!n!
जुल्म के सामने सब्र की जीत के प्रतीक। पूरी मनुष्यता को एक सूत्र में बांधने वाले और समानता चाहने वाले। सद्गुणों से भरपूर। बाणी के बोहिथा। सत्गुरु अर्जन देव की शहादत दुनिया भर में मिसाल है। उनकी शहादत सच के पक्ष में गवाही है और जुल्म के विरुद्ध अद्भुत बग़ावत है।

उनका पूरा जीवन मनुष्यता और बाणी को समर्पित रहा है। उन्होंने अपने समय के समाज को जिस तरह से समझा और कई तरह के विरोध के बावजूद समाज सुधार का कार्य जारी रखा, रहती दुनिया तक याद किया जाएगा। मनुष्य को अंधकार से उजाले की ओर लेजाने वाले फ़लसफ़े और बाणी को गुरु अर्जन देव जी ने ही संपादित कर मानव जाति को ‘श्रीगुरु ग्रंथ साहिब’ अमूल्य ख़êाने के रूप में भेंट किया।

इस संपादन में उन्होंने जिस तरह बाणी का चुनाव किया, अपने आप में बेमिसाल है। उनकी शहादत सदियों तक हमारा रास्ता रौशन करती रहेगी। वह शहीदों के सरताज हैं। लाहौर में साहिब श्रीगुरु अर्जन देव महाराज की शहादत से संबंधित दो स्थान मौजूद हैं। एक गुरुद्वारा डेहरा साहिब, जहां रावी किनारे गुरु साहिब ज्योति-ज्योत समाए थे औद दूसरा चंदू की हवेली की कोठड़ी, जहां गुरु अर्जन देव जी को तसीहे दिए जाते रहे और उसी हवेली का कुआं, जहां गुरु जी स्नान किया करते थे।

गुरुद्वारा डेहरा साहिब

गुरुद्वारा डेहरा साहिब, शाही क़िला लाहौर के बिल्कुल सामने और शाही मस्जिद के नजदीक है। पिछले समयों में दरिया रावी शाही क़िले की दीवार से लगकर बहता था। इस स्थान पर दरिया रावी के किनारे साहिब श्रीगुरु अर्जन देव जी गुरमति के नियमों की रक्षा करते हुए सत्य प्रतिज्ञा की कसौटी पर सिखों को अचल रहने का उपदेश देते हुए ज्योति-ज्योत समाए।

1619 ईस्वी में श्रीगुरु हरिगोबिंद साहिब जी गुरु-अस्थानों के दर्शन करने आए, तो उन्होंने शहीदी स्थान पर यादगारी थड़ा तैयार करवा दिया। सिख राज के समय महाराजा रणजीत सिंह ने इस गुरुद्वारा का नवनिर्माण कराया। पर गुरुद्वारा की ईमारत छोटी ही रही। महाराजा ने गुरुद्वारा साहिब के नाम गांव नंदीपुर जिला स्यालकोट तहसील डसका की 589 बीघा रक़बा जागीर लगवाई।

सिख राज्य के समय गुरुद्वारा को 50 रुपए वाषिर्क गांव कुतबा तहसील कसूर और नब्बे रुपए वार्षिक रियासत नाभा की तरफ़ से मिलते रहे। 1909 ई. में प्रकाश स्थान के लिए मौजूदा हाल कमरे का निर्माण कराया गया। 21 अप्रैल 1930 ई. में इस गुरुद्वारे की सेवा एक बार फिर आरंभ हुई, जो 9 सितंबर 1934 ई. को संपूर्ण हुई। गुरुद्वारा साहिब के दोनों तरफ़ जगह कच्ची थी, जो पक्की की गई। श्रद्धालुओं की लगातार बढ़ रही रौनक को ध्यान में रखते हुए, लंगर हाल के पीछे साईं मियां मीर सराय का निर्माण कराया गया।

‘महान कोश’ में वर्णित है कि इस गुरुद्वारे में देश के बंटवारे से पहले गुरु गोबिंद सिंह जी का दंदखंड का एक कंघा होता था, जिसके चालीस दांतों में से दो टूटे हुए हैं। मौजूदा समय में रोजाना गुरुद्वारा में गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश किया जाता है। इवैक्यू ट्रस्ट प्रॉप्र्टी (ईटीपीबी) द्वारा दो ग्रंथी पक्के तौर पर नियुक्त किए गए हैं और भारत से गए श्रद्धालुओं की देखभाल के लिए एक केयर टेकर भी नियुक्त किया गया है। गुरुद्वारा डेहरा साहिब को लाहौर वाले यादगार कहकर संबोधित करते हैं। पाकिस्तान गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी का कार्यालय भी इसी गुरुद्वारा में है।

गुरुद्वारा लाल कुआं साहिब

गुरुद्वारा लाल कुआं लाहौर के मोची दरवाजो के अंदर (पानी वाले तालाब के पीछे) शिया मोहल्ले में है। इतिहासकारों के अनुसार यह कुआं अहंकारी दीवान चंदू की हवेली में था। 1606 ई. में गिरफ्तारी के समय श्रीगुरु अर्जन देव जी यहीं स्नान किया करते थे। इस जगह पर ही श्रीगुरु अर्जन देव जी को चंदू ने अनेक तसीहे दिए। गर्म रेत गुरु जी के सीस पर डाली गई और गर्म लोह पर बिठाया गया। पर गुरु जी ने प्रभु हुक्म को सत्य जानकर माना।

जब 1619 ई. में गुरु हरिगोबिंद साहिब जी लाहौर आए, तो सिखों ने चंदू दुष्ट के नाक में नकेल डालकर बाजारों में घुमाया। जब चंदू इस हालत में कुएं के पास पहुंचा, तो भड़भूंजे, जिसने गुरु महाराज पर रेत डाली थी, ने अपना वही कड़छा चंदू के सिर पर मारा, जिससे चंदू ने गुरुजी के सीस पर गर्म रेत डलवाई थी। बाद में इस जगह पर गुरुद्वारा बनाया गया। पहले गुरुद्वारा बहुत छोटा था, फिर साथ लगते मकान संगतों ने माया एकत्र करके ख़रीदे और गुरुद्वारा की विशाल ईमारत का निर्माण किया। इस गुरुद्वारा के नाम पर एक दुकान, 21 कनाल 14 मर्ले जमीन गांव खोखर में थी। देश के बंटवारे से पहले यहां तीस-चालीस गूंगे भी रहते थे।

मौजूदा समय में मोची दरवाजो के अंदर रहने वालों को इस गुरुद्वारा के संबंध में कोई जानकारी नहीं है और ना ही लाहौर के किसी भी रिकॉर्ड में इस संबंध में कोई जानकारी दर्ज है। आज लाहौर और साथ वाले शहरों में लाल कुआं सिर्फ़ लाल कुएं के लिए ही प्रसिद्ध है। इसलिए हमारे लोगों की कोशिश होनी चाहिए कि हम इस धरोहर से अपने लोगों को अवगत करवाएं और प्रेरित करें कि वहां दूसरे धार्मिक स्थानों के साथ-साथ इस जगह के भी दर्शन ज़रूर करके आएं। गुरु जी की शहादत के दिन बहुत सारे पंजाबी वहां जा रहे हैं, उन्हें तो ख़ास तौर पर वहां जाना चाहिए। यह हमारा गुरु जी को नम्न होगा।
tfs.....
 

Saini Sa'aB

K00l$@!n!
Thanks for the article.

Guru Arjun Dev ji will always be remembered as the Kings of martyrs.
Their compilation of Adi Granth is priceless gift to humanity and Sikhs in particular.

"Shri Guru Granth Sahib ji da satkar, ohna de pawan sarup de parkash nu Guru Sahib di pargat deh man-na te Guru Granth Sahib ji de hukamnameya te chalna hi ik sikh di Guru Sahib lai sachi sardhanjali hai."
well said bro.............
 
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