फरक बस इतनां है ग़ालिब .......

फरक मेरे और यार में बस इतनां है ग़ालिब,
के मैं देखता हूँ चेहरा और वो बंदे की नियत.....
वो हजारों गुनाहों पे मेरे पर्दा रखता है हरदम,
मैं हूँ के किसी को एक बार भी ना माह कर पाऊं
निगाहें टिकाता मेरे लिए वो सुबह से शाम तक,
भूलकर भी रात के अंधेरों में उस रास्तों पे ना जाऊं
कितना रहिम और होगा भूडप्न उस दिल में ऐ जालिम
दे बार-बार तुझे मौके, मालूम होने पर बी अस्लियत !
फरक मेरे और यार में बस इतनां है ग़ालिब,
के मैं देखता हूँ चेहरा और वो बंदे की नियत.....
खौफ थोड़ा सा भी नहीं तेज इस चलते जहां में,
मुझे ध्यान है तो बस, मेरे पल और यादों का
मेरी रूह को सुनने के लिए मजबूर करे कभी-कभी,
लेकिन करता हूँ वो ख्याल होता है जो इरादों का
किसी के मरनें या जीने सी मुझे शिकवा नहीं,
मुहं से निकले उसका नाम बस जब बिगड़े तबियत !
फरक मेरे और यार में बस इतनां है ग़ालिब,
के मैं देखता हूँ चेहरा और वो बंदे की नियत.....
उसका रहिनो-कर्म होता है उसके ही बन्दों पे,
बस इश्क-इबादत को पूरा करना है पड़ता
उसे हासिल करना तो दूर देखना भी है मुश्किल,
उसी के दर जा के सूली पे चड़ना है पड़ता
तू कभी उतरे खरा अगर वो आजमाए,
है तेरी नहीं गुरजंट इतनी काबलियत !
फरक मेरे और यार में बस इतनां है ग़ालिब,
के मैं देखता हूँ चेहरा और वो बंदे की नियत.....
 
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