~¤Akash¤~
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ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
समंदरों ही के लहज़े में बात करता है
खुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है
शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं
किसी का कुछ ना बिगाड़ो तो कौन ड़रता है
ज़मीं की कैसी वक़ालत हो, फिर नहीं चलती
जब आसमाँ से कोई फ़ैसला उतरता है
तुम आ गये हो तो फिर कुछ चाँदनी सी बातें हों
ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है
समंदरों ही के लहज़े में बात करता है
खुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है
शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं
किसी का कुछ ना बिगाड़ो तो कौन ड़रता है
ज़मीं की कैसी वक़ालत हो, फिर नहीं चलती
जब आसमाँ से कोई फ़ैसला उतरता है
तुम आ गये हो तो फिर कुछ चाँदनी सी बातें हों
ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है