भाषा को मरने से बचाएगी सरकार

पिछले महीने अपनी मौत के साथ ही बोआ सीनियर दुनिया की सबसे पुरानी भाषा खत्म हो गई। वह ग्रे
ट अंडमान की जनजातीय भाषा बो को बोलने वाली आखिरी इंसान थीं। जब तक बोआ जिंदा थीं, बो और इस जैसी कई अन्य लुप्तप्राय भाषाओं के संरक्षण के लिए खास पहल नहीं हुई पर बोआ की मौत के बाद अब सरकार जागी है।

सांस्कृतिक विविधता पर आए इस संकट को दूर करने के लिए सरकार ने प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर सरकारी आदेशों व नियमों को अल्पसंख्यक भाषा में अनुवाद की व्यवस्था कराने का फैसला किया है। इससे सरकारी नियमों व आदेशों को तहसील, नगर निगम और जिला स्तर पर अल्पसंख्यक भाषा में भी मांगा जा सकेगा। शर्त बस इतनी होगी कि उस भाषा को बोलने वालों का पर्सेंट उस क्षेत्र की स्थानीय जनता में कम से कम 15 पर्सेंट हो। इसके अलावा अल्पसंख्यक आयोग भी अब अस्तित्व का संकट झेल रही इन भाषाओं पर फैलोशिप को वरीयता देने की सोच रहा है।

2010-11 के लिए पेश आम बजट में भी भाषायी अल्पसंख्यकों की मदद के लिए एक स्कीम का ऐलान किया गया है। इसमें लैंगिक अल्पसंख्यकों के लिए प्रमोशनल ऐक्टिविटीज पर खर्च के लिए 90 लाख रुपये आवंटित किए गए हैं। इस स्कीम को इसी साल बना लिया जाएगा।

गौरतलब है कि 1961 की जनगणना में देश में 1,652 मातृभाषाओं का पता लगा था। 1991 तक आते-आते सिर्फ उन्हीं को मातृभाषा का दर्जा दिया गया जिन्हें बोलने वालों की आबादी 10,000 या उससे ज्यादा हो। इस पैमाने की भी बड़ी विडंबना रही। जैसे कि सवाल उठता है कि लक्षद्वीप के मिनिकॉय आइलैंड में बोली जाने वाली भाषा 'महल' को मातृभाषा माना जाए या नहीं क्योंकि इस पूरे आइलैंड की जनसंख्या ही 10,000 से कम है। यानी यह भाषा सेंसस रिपोर्ट में दर्ज होने के लिए जरूरी पैमाने पर खरी नहीं उतरती।
 
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