आत्मविस्मृति

आत्मविस्मृति

पर्वतश्रेणी ।
शीत हवाएँ ।
कोहरे-पाले,
रूई के गाले-सी हिम
से ढँका, मुँदा वह पर्वत-देश ।
श्वेत श्रृंग—
जिनको आकांक्षा छूती धर जलधर का वेश ।

उन्हीं उच्च लक्ष्यों पर
बढती हुई एक कोई छाया,
ऊपर ही ऊपर को
चढती हुई एक कोई काया ।
--पर्वतआरोही की काया ।

वह पर्वतआरोही ।
मैं हूँ जो
मैदान, नदी, टीले, कछार, घाटियाँ पारकर
आया हूँ ।
ऊँचे पर्वत की चोटी छूने को आया हूँ ।
(:आर्टगैलरी में पर्वत का चित्र देखकर आया था,
उस क्षण मेरे मन में ऐसा अद्भुत भाव समाया था ।)
 
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