आखिर क्यों भागती है चिटफंड कंपनियां ?

Arun Bhardwaj

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रेगिस्तान में पानी तलाशने जैसा है जनता से पैसा लेकर उसे दोगुना करने का धंधा और बावजूद इसके आज से नहीं लम्बे समय से शातिर दिमाग लोगों की पहली पसंद है ये काम। आपको याद होगी राज कपूर की श्री ४२० या फिर अक्षय कुमार की फिर हेराफेरी जैसी फ़िल्में जिनकी स्क्रिप्ट ही ऐसी कथाओं पर आधारित थी, एक लम्बे समय से चल रही बंगाल की पीयरलेस को भारत की सबसे पुरानी चिटफंड आधारित कम्पनी कहा जा सकता है। और सबसे बड़ी सहारा को।

वास्तव में ये चिटफंड कम्पनियां नहीं है वस्तुत: जनता से किसी विशेष योजना के लिए पैसे लेकर उसके लाभांश के रूप में एक निश्चित समय में उस ली हुई रकम को लाभ सहित वापस करना ही इनका पेशा है। ऐसा करने में ये कम्पनियां भारत सरकार द्वारा बनाए गए नियम, रिजर्व बैंक के निर्देश, पूँजी बाजार नियामक संस्थाओं के नियमों की अनदेखी कर जनता से पैसा उगाहती है और उन्हें उन कामों में लगाती है जिनके नाम पर पैसा नहीं उगाया गया है यही इन संस्थाओं और कम्पनियों का सबसे बड़ा गुनाह है।

ऐसी कम्पनियों के भागने का एक बड़ा कारण पैसा उगाहने वाले एजेंटों को दी जाने वाली कमीशन की मोटी राशि है जिसकी लालच में वे जनता से सब कुछ जानते-समझते पैसा लाकर कम्पनी को देते है और मोटा कमीशन लेकर नए शिकार की तलाश में चल देते है। कम्पनियों के जनता से किये गए वायदे को पूरा न कर पाने का एक और बड़ा कारण पैसे का दुरूपयोग है, एक तो पैसे का बड़ा हिस्सा कमीशन और दूसरे खर्चों में चला ही जाता है, फिर आये हुए पैसे को जल्दी दुगुना, तिगुना करने के चक्कर में कम्पनियों के होनहार मालिक सस्ती, विवादित जमीने, खोटे धंधे, और ऐयाशी में उड़ाना भी होता है। ऐसी कम्पनियों के कमाने वाले हाथ चूँकि हजारों-लाखों होते है और हिसाब मांगने वाला कोई नहीं होता, जाहिर सी बात है कि आसपास चमचों, मुफ्तखोरों, औरतों और अन्य ऐब घेरने में देर नहीं लगती, ऐसे में निवेशको के हित ताक पर रख दिए जाते है और शुरू हो जाता है बर्बादी का खुला खेल जिसका अंत निवेशकों की बर्बादी ही बन कर सामने आता है।

निवेशकों को फंसाने के लिए ऐसे कम्पनी मालिक नए-नए जाल बुनते है, भ्रम फलाये जाते है, लम्बे -चौड़े वादे किये जाते है, मालों की चमक-दमक, मीडिया का साम्राज्य स्थापित किया जाता है और ना जाने कितने अविश्वसनीय धंधों में पैसा लगा कर ग्लैमर की चमक बिखेरी जाती है कि निवेशक भ्रमित हो जाए, ऐसा होता भी है लेकिन अन्तत पैसा तो आपको देना है जिसमे ग्लैमर कुछ नहीं कर सकता, निवेशक ज्यादा दिनों तक मायाजाल में उलझा नहीं रह सकता, और पैसा ऐसी कम्पनियां गलत जगह निवेश और मौज-मस्ती में उड़ा देती है बिना ये सोचे कि आखिर उन्हें पैसा वापस भी करना है और वो भी कही डेढ़ गुना तो कहीं दोगुना, कहीं ४गुना तो कहीं ३गुना।

अधिकाँश कम्पनियां इस दबाव में बिखरने लगती है, रही सही कसर मीडिया के माध्यम पूरी कर देते है, वो ही माध्यम जिन्हें ऐसी कम्पनियां मोटा विज्ञापन देकर समझने लगती है कि मीडिया से उन्हें सही गलत करने का वैध लाइसेंस मिल गया है। ऐसी कम्पनियों की कमाई का एक मोटा हिस्सा नेताओं, पुलिस और प्रशासन की जेब में भी जाता है जो इन पर तब तक हाथ रखने का स्वांग रचते है जब तक उनकी इज्जत दांव पर न लगी हो, चुनाव में मोटे-मोटे फंड देकर ऐसी कम्पनियों को सुरक्षित हो जाने का मुगालता हो जाता है।

मुख्य बात ये है कि ऐसी कम्पनियां अगर सरकार, रिजर्व बैंक, और दूसरी नियामक संस्थाओं के नियमों का अनुसरण करें तो इस गोरखधंधे में इनको कुछ बचे ही नहीं, यही कारन है कि इस संस्थाओं के नियमों से दायें- बाएं होकर लकीर खींची जाती है और बाद में मुसीबत की बारिश ऐसी लकीर को साफ़ करने का काम आसानी से कर देती है।

ऐसा भी नहीं है कि प्रशासन और पुलिस के साथ सरकार का डंडा इन पर चलता नहीं, लगभग २ साल पहले ग्वालियर सहित पूरे मध्य प्रदेश में इन पर डंडा चला था और आज भी इनमें से कई कम्पनियों के डायरेक्टर या तो जेल में है या फरार है, उन पर इनाम घोषित है। इस गोरखधंधे में शामिल ऐसी कम्पनियों पर सी बी आई जांच भी मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के आदेश पर लंबित है पर ये ऐसी कम्पनियों के पैसे के रुतबे का ही असर है कि तीन महीने में जांच रिपोर्ट दाखिल होने के आदेशों के बावजूद आज २ साल बाद भी सी बी आई की जांच रिपोर्ट कोर्ट पटल पर पेश नहीं हुई। इतना ही नहीं आज भी फरार कम्पनियों के निदेशक दूसरे राज्यों से अपने धंधे को संचालित कर रहे है और जनता को मुर्ख बनाने का काम बदस्तूर जारी है। कुछ ऐसा ही हाल राजस्थान का भी है जहां साल-डेढ़ साल पहले गोल्ड सुख सहित कई कम्पनियां जनता को करोड़ों रुपये का गच्चा दे चुकी है लेकिन फिर भी ऐसी कम्पनियों का मायाजाल बदस्तूर बिछा हुआ है, और अब पच्छिम बंगाल और असम जबरदस्त चर्चा में है। शक है कि वहां के निवेशकों को न्याय मिलेगा पर इस बहाने इतना ही हो जाए कि ऐसी कम्पनियां बेलगाम होकर जनता को आइन्दा उल्लू न बना सकें तो भी उपलब्धि है। पर शक की गुंजाइश है क्योंकि ऐसी कम्पनियां नेताओं, मीडिया के दलालों और मुफ्तखोरों के लिए वरदान की तरह है, ठीक दुधारू गाय जिसे कभी भी, कहीं भी निचोड़ा जा सकता है।
 
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