तराशा है बहुत

~¤Akash¤~

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इक ग़ज़ल उस पे लिखूँ दिल का तकाज़ा है बहुत

इन दिनों ख़ुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहुत



रात हो दिन हो ग़फ़लत हो कि बेदारी हो

उसको देखा तो नहीं है उसे सोचा है बहुत



तश्नगी के भी मुक़ामात हैं क्या क्या यानी

कभी दरिया नहीं काफ़ी, कभी क़तरा है बहुत



मेरे हाथों की लकीरों के इज़ाफ़े हैं गवाह

मैं ने पत्थर की तरह ख़ुद को तराशा है बहुत
 
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