कविता

अगर दिन रहता,
अचानक रात आ जाती ।
न मैं इस तरह दुख सहता कि मानो :
प्राण पिंजरे में पड़े हों,

-द्वार हों उन्मुक्त,

सम्मुख हो गगन का मुक्त पारावार-
आकर्षण बड़े हों ।

-किन्तु, पंखों के चरम अभ्यास,

चरणों के अतुल विश्वास
सबके सब वहीं जकड़े खड़े हों,
लौह पिंजर के भयावह सींकचों से जा अड़े हों ।

अगर दिन रहता
अचानक रात आ जाती…

-न मैं इस तरह दुख सहता ।

किन्तु बैरिन सांझ आई-
विगत स्मृतियों की अशुभ प्रेतात्माएँ, और
मटमैले धुंधलके साथ लाई,
अचानक जैसे सुलगने लगीं नम, गीली लकड़ियाँ,
धुआँ वैसा ही उठा : जैसे घरों से :
काटता चक्कर, लकीरें छोड़ता, गहरा, अनिश्चित ,
हुआ मन कड़ुआ, डबाडब आँख भर आई ।

झुटपुटे में कहीं थोड़ा-सा उजाला,
कहीं ज्यादा-सा अंधेरा :
क्रूर, निर्दय दैत्य के आकार का घेरा बनाकर बढा...
मुझको लगा जैसे
-प्राण पिंजरे में पड़े हैं, और
बाहर व्याघ्र , शूकर, श्वान,-
सुधियों, यातनाओं, दुखों के-
घेरे खड़े हैं।
जिन्दगी के साथ ज्यों अभिशाप के फेरे पड़े हैं ।

तभी कोई एक पंछी
शाम की निस्तब्धता को तोड़ता,
अपने निशा-आवास को जाता हुआ बोला :

व्यर्थ ही यह सब तुम्हारा दु:ख औ' अवसाद है,
शाम तो रंगीन है, मदहोश है, उन्माद है,
एक दिन ही नहीं, वह हर रोज़ आएगी,
तुम्हारे देखते : संसार पर सोना लुटाएगी ।

घुटोगे तुम, पिसोगे तुम, रुकोगे तुम
-अकेले तुम ।

न देगा साथ कोई पशु, न पक्षी और नर-नारी,
न देगा साथ कोई फूल, पत्थर, गीत, सपना-

बस, अकेले तुम, अकेले तुम...
 
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