कि ये मंज़िल भी कड़ी....

aman1987

Aman Jatt
ऐसे चुप

हैं

कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे,





तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जैसे।

अपने ही साये से हर गम लरज़ जाता हूँ,
रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे।

कितने नादाँ हैं तेरे भूलने वाले कि तुझे
याद करने के लिए उम्र पड़ी हो जैसे।

मंज़िलें दूर भी हैं, मंज़िलें नज़दीक भी हैं,
अपने ही पाँवों में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे।

आज दिल खोल के रोए हैं तो यों खुश हैं ‘फ़राज़’
चंद लमहों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे।
 
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