कौंधती उधर किरनें लड़ने को आती हैं

कौंधती उधर किरनें
लड़ने को आती हैं ।

हम तो अप्रस्तुत हैं ।

डूबे हैं नींद में,
खोए हैं स्वप्न में,
चेतन से परे ये हम
लीन हैं अचेतन में ।

हम तो अप्रस्तुत हैं,
इसलिए सुरक्षित हैं ।

आख़िर हमसे क्या लेगा उजाला ?
आख़िर क्या कर लेंगी किरनें हमारा ?
उनके पैने-तीखे तीर सभी व्यर्थ हैं ।
होएँ हम किरणों से भले ही अपरिचित
पर ज्ञात है हमें तो—

वे गन्दी हैं, नीच और घृणित और कुत्सित है,
रखती अपेक्षा हैं नींद तोड़ने की वे ।
दंभ-मात्र ही है यह ।

जाओ अनुचरो, अरे निशि के अनुचरो ।
कहो—
नहीं है अप्रस्तुत हम ।
सज्जित हैं, रक्षित हैं, पालित हैं

--सुप्ति के कवच में ।

यह राज्य हमारा है ।
किरणों के चापों पर ध्यान नहीं देंगे हम

--स्वप्नों के अभयद कुंडलों से अलंकृत हैं । …

कितना ही कहो हमें—‘सूर्यपुत्र । सूर्यपुत्र ।
उसका पितृत्व यहाँ कौन स्वीकारता ।
तुम्हीं हो असत्य-पक्ष, तुम्हीं दस्यु, अन्यायी ।
धर्मयुद्ध को हम धर्मयुद्ध नहीं मानते ।

हम तो हैं वीर कर्ण ।
वीर कर्ण । --मूर्ख नहीं ।
दान नहीं देंगे हम ।
कवच और कुंडल हम कभी नहीं त्यागेंगे—
क्या मारे जाएँगे ??

हम हैं कूटज्ञ कर्ण, धूर्त कर्ण, चतुर कर्ण :
दानी नहीं ।
और यों सुरक्षित हैं उसके उजाले से
संभव है, जिससे हम कभी कहीं जन्मे हों ।
 
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