कुछ देर अजब पानी बरसा

कुछ देर अजब पानी बरसा ।
बिजली तड़पी, कौंधा लपका …

फिर घुटा-घुटा सा, घिरा-घिरा
हो गया गगन का उत्तर-पूरब तरफ़ सिरा ।

बादल जब पानी बरसाये
तो दिखते हैं जो,
वे सारे के सारे दृश्य नज़र आये ।

छप-छप,लप-लप,
टिप-टिप, दिप-दिप,-
ये भी क्या ध्वनियां होती हैं ॥

सड़कों पर जमा हुए पानी में यहां-वहां
बिजली के बल्बों की रोशनियां झांक-झांक
सौ-सौ खंडों में टूट-फूटकर रोती हैं।

यह बहुत देर तक हुआ किया …

फिर चुपके से मौसम बदला

तब धीरे से सबने देखा-

हर चीज़ धुली,
हर बात खुली सी लगती है
जैसे ही पानी निकल गया ।

यह जो आया है वर्ष नया-

वह इसी तरह से खुला हुआ ,
वह इसी तरह का धुला हुआ
बनकर छाये सबके मन में ,
लहराये सबके जीवन में ।

दे सकते हो ?
--दो यही दुआ ।
 
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