जहाँ पर इन्द्रधनुष पहले-पहले बनते

जहाँ पर इन्द्रधनुष पहले-पहले बनते,
जहाँ पर मेघ परस्पर परामर्श करते कि
कैसा रूप धरें जो त्रिभुवन-मोहन हो ।

जहाँ से दृश्य नए खुलते—

वहाँ तक जाकर मैं रूक गया ।

याद अब भी मुझको वह रात,
बहुत दिन पहले की यह बात…

एक नाटक होते देखा :
और अभिनय की हर रेखा
मुझे रँगती-सी चली गई ।
बहुत उद्विग्न हुआ मैं, और,
--चलूँ अब किसी दूसरे ठौर—
सोचकर, उठा और चल दिया ।

अचानक वहीं पार्श्व में दिखा
द्वार, जिसपर ‘सज्जागृह’ लिखा ।
झाँककर मैं भी देखूँ इसे ?-
ज्ञात था किसे ।
कि
श्री की होगी ऐसी राह ।
रँगे जाते थे चेहरे ।
आह ।
जान मैं गया,
जान मैं गया कि:
मुद्रा, अंग-भंगिमा,
गति, लय, भावावेग ,
हास उन्मुक्त, और उद्वेग—
सभी की रचना का यह केन्द्र ।
सभी ‘अभिनय’ का पहला स्रोत ।

तभी से कुछ ऐसा हो गया
कि हर सज्जागृह के
दरवाज़े से ही
मैं वापस आ गया ।

जहां पर रंग और आकार पुष्प पाते,
जहां से स्वप्न सुहाने पलकों पर आते,
वहां तक जाकर मैं थम गया ।

नहीं सोचा- ‘रहस्य को करूं अनावृत, नग्न ।‘
नहीं चाहा- ‘सुन्दरता को यों कर दूं भग्न ।‘
और
इस उलझी-सुलझी यात्रा का
था जहां आखिरी ठौर :
वहां तक पहुंचा-
मुड़ आया ।
 
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