नए बने मीडिया मालिक : बड़े बेआबरू होकर

Arun Bhardwaj

-->> Rule-Breaker <<--
वैसे तो पत्रकारिता करना खानाबदोशी जैसा ही पेशा है लेकिन पिछले चन्द सालों में अचानक कुकुरमुत्तों की तरह उगे और फिर बुलबुले की तरह फूटे कई अखबारों और इनके मालिकों के व्यवहारों ने पत्रकारिता की गरिमा को जितनी चोट पहुंचाई और इसके उद्देश्यों के साथ जैसा छल किया उसने पत्रकारिता किया जाए तो बेहतर होगाखासकर हिंदी पत्रकारिता का पूरा का पूरा चाल-चरित्र ही बदल कर रख दिया। पिछले ५-७ साल में रियल स्टेट, चिटफंड और ऐसे ही नामी -बेनामी, १ नम्बर-२ नम्बर के धंधे करने वाले लोग पत्रकारिता की उदारता भरी दुनिया में उतरे। इनमें से कुछ लोग पत्रकारिता के बाहर से दिखाई देने वाले ग्लैमर और चकाचौंध से आकर्षित हुए तो कुछ इसे अपने काले- पीले धंधों को गोरा बनाए रखने के उद्देश्यों को लेकर।

कुछ नवोदित अखबार मालिक जल्द पैसा कमाने की होड़ में शामिल होने का मकसद संजो कर इस दुनिया में उतरे। अफ़सोस इन अखबार मालिकों में ना तो अखबार चलाने का माद्दा था, न है और न ही इतनी समझ, न ही उद्देश्यों की पवित्रता, जो इन्हें अखबार की दुनिया में टिकाये रख सकती। नतीजा ज्यादातर बंद हो गए या निकल भी रहे है तो इस स्थिति में हैं कि उनका निकलना न निकलने जैसा ही है। अफसोसनाक बात ये है कि अखबार निकालने का जोश और पैसे की गर्मी, कारण कुछ भी रहे लेकिन इन छद्म अखबार मालिकों ने नीचे से लेकर ऊपर तक के कलमकारों को आकर्षित किया और वे पत्रकारिता के मानदंड भुलाकर ऊँचे-ऊँचे पैकेजों के लालच में एक अखबार के दरवाजे से दूसरे के दरवाजे की दूरी तय करते रहे और कहीं- कहीं तो इनके हालात ऐसे हो गए कि वे घर के रहे ना घाट के। कहीं- कहीं तो इन नवोदित अखबार मालिकों ने ऐसे पत्रकारों की हालत ऐसी कर दी जिसे शब्दों में बयाँ न किया जाए तो बेहतर होगा।

खुद अखबार मालिकों की स्थिति ऐसी हो गई कि वो कहावत बारम्बार याद आ जाती है चौबे जी गए छब्बे बनने दुबे बन कर निकले। कोई अखबार मालिक बनने के चक्कर में ५ करोड़ का तिलक करा गया तो कोई १० करोड़ का। इससे ज्यादा इनकी हैसियत थी ही नहीं। वे तो आये थे ब्लेकमेलिंग, विज्ञापन और अवैध् वसूलियों के जरिये एक ही साल में ५ का १० करोड़ करने। अखबार मालिक होने का रोब भी ग़ालिब होता सो अलग। बेचारे ना खुदा ही मिला न बिसाले सनम और बड़े बेआबरू होकर कुचे से निकल गए और कई निकलने की तैयारी कर रहे है। जो लोग चिटफंड या ऐसे ही और धंधे चलाने की आस लेकर अखबार की दुनिया में उतरे थे उनकी भी साध अधूरी रह गई, ऐसे कई मालिकों के तो सर मुडाते ही ओले पड़े वाली बात हो गई और अखबार चालु होते ही उनके चिटफंड दफ्तरों पर ताले जेड गए कि उन्हें सँभालने का भी मौक़ा नहीं मिला। रियल स्टेट संचालक, सटोरिये, जुआरी ना जाने कैसे- कैसे लोग इस साफ़ सुथरे पत्रकारिता के तालाब में उतरे और अपनी गंदगी से इसे गंदा और अपवित्र कर चले गए नुकसान दोनों का हुआ पर ज्यादा नुकसान पत्रकारिता का ही हुआ और हो रहा है। कौन करेगा इस नुकसान की भरपाई?
 
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