उत्*तराखंड आपदा में मीडिया की हीरोइक्*स

Arun Bhardwaj

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केदारनाथ मंदिर के पास सेना का हेलीकॉप्टर उतरा और उसका चालक उतर कर बाहर आया तो एक अंग्रेजी चैनल की रिपोर्टर ने उसका नाम उसकी कमीज पर लिखा देख पहला सवाल किया-आप मुसलमान हैं.
आप यहां..सैनिक ने तुरंत जवाब दिया : मैडम सेना में हम सबका एक ही धर्म होता है-इंडिया. मेरा भी मन था कि मैं कभी मंदिर में आऊं. सवाल निरी मूर्खता से भरा था. रिपोर्टर को निरुत्तर होना ही था. यह कौन-सी मानसिकता थी, जिसके चलते उस आपदा में भी उसे धर्ममूलक सवाल पूछना जरूरी लगा कि आप मुसलमान होकर भी यहां कैसे आए हैं. उसे हैरत थी कि एक मुसलमान सैनिक को क्या कोई संकोच नहीं हुआ? लेकिन उस जवान ने जो जवाब दिया; जो एक अखबार में छपा. वह उसका मुंहतोड़ उत्तर था.

बातचीत की इस मूर्खता के आगे का रिकार्ड बनाया एक अन्य चैनल के रिपोर्टर ने. वह उस बाढ़ग्रस्त इलाके की रिपेर्टिंग करने के चाव में एक आपदा में फंसे यात्री के कंधे पर चढ़कर, अपनी टांगें लटका कर रिपोर्टिंग करने लगा. जिस व्यक्ति के कंधे पर वह सवार था, वह पानी में आधे से ज्यादा डूबा हुआ चल रहा था. इस सीन के बाद चैनल ने उसे उचित ही बर्खास्त किया. इस पर उसने प्रतिवाद किया कि उसे शिकार बनाया जा रहा है! ये दो घटनाएं बाढ़ग्रस्त इलाके को दिखाने में स्पर्धी बने चैनलों की रिपोर्टिंग की आवारगी की कहानी कहती हैं. हमारे चैनलों के ज्यादातर रिपोर्टर मिजाज से मुंहजोर होते हैं. वे कई बार बेतुके सवाल तो पूछा ही करते हैं.

साक्षात्कार लेना एक बड़ी मेहनत वाली कला मानी जाती है. साक्षात् घटना स्थल से रिपोर्ट करना भी एक विशिष्ट कला है. घटनास्थल या आपदा स्थल से कवर करना टीवी के चौबीस बाई सात के कवरेज वाले दिनों में और भी चुनौतीपूर्ण कला बन जाती है. उत्तराखंड आपदा के लाइव कवरेज की प्रक्रिया में कई नई बातें नजर आई : पहली तो यही कि हमारे नामी अंग्रेजी चैनलों के पास आपदा का कवरेज करने वाले दक्ष और समर्पित रिपोर्टर नहीं हैं. उनके पास डिजास्टर प्रबंधन के दौरान काम में आने वाले कौशल और जरूरी दक्षता का अभाव दिखता है.

केदारनाथ पहुंचे चैनलों के रिपोर्टर और कैमरामेन वही थे, जो इससे पहले अन्ना आंदोलन को कवर करते नजर आए या केजरीवाल को कवर करते नजर आए या दिसम्बर में हुई बलात्कार की जघन्य घटना और उसके प्रतिरोध में उपजे आंदोलन को कवर करते नजर आएं या किसी चुनाव को कवर करते नजर आते हैं या किसी संसदीय कार्यवाही का कवरेज करते नजर आते हैं. आपदा प्रबंधन के कवरेज करने के लिए हर आम पत्रकार नहीं जा सकता. उसे आपदा संबंधी बातों की न्यूनतम ट्रेनिंग तो चाहिए ही. कल को वह किसी दुर्घटना में फंस गया तो वही खबर बन जाएगा, जिस तरह युद्ध को कवर करने के लिए अलग रिपोर्टर हुआ करते हैं, जो युद्ध संबंधी बारीकियां जानते हैं, उसी तरह विशिष्ट कार्य के लिए विशेष-दक्ष रिपोर्टर और कैमरामैन चाहिए.

बारह दिन बाद केदारनाथ मंदिर के पुजारी का एक बयान अखबार में पढ़ा. जिसमें वे कह रहे थे कि मंदिर के अंदर मीडिया के लोगों को नहीं जाना चाहिए. हमें नहीं मालूम कि यह खबर क्या उस कवरेज की प्रतिक्रिया में आई जिसमें एक चैनल के पत्रकार-कैमरामैन मंदिर के गर्भ गृह में घुस कर रिपोर्टर कर रहे थे. वह पत्रकार बार-बार यह कह रहा था कि इस जगह की संवेदनशीलता का पूरा ध्यान रखते हुए हम अंदर का हाल दिखा रहे हैं. अंदर का दृश्य वाकई विदारक था.

गर्भगृह में कीचड़ भरा था. रिपोर्टर ने बताया कि यहां गर्भगृह के कीचड़ में कई लोग दबे हैं. पुजारी जी की आपत्ति पुजारी जी कहेंगे. मंदिर में जाना उचित था या नहीं, ये रिपोर्टर और चैनल बता सकते हैं. हमें तो मंदिर में घुसकर दिखाने वाले उस रिपोर्टर से थोड़ी हमदर्दी ही रही जो सुबह से लेकर शाम तक कवर करता बोलता रहा था. उसका गला पड़ गया था. चेहरे पर बेहद थकान दिख रही थी, उसे जोर से बोला तक नहीं जा रहा था. लेकिन रिपोर्ट किए जा रहा था. उसे आदेश मिला होगा.

क्या उसकी जगह कोई दूसरा रिपोर्टर नहीं लग सकता था? क्या चैनल ने उसकी जगह कोई रिप्लेसमेंट दिया था? चैनलों ने सात-आठ जगह कवर कराया. जगह-जगह रिपोर्टर भेजे. लेकिन लगता है कि थकान के बाद जगह लेने के लिए दूसरे न भेजे. मीडिया इतना काम जरूर सही किया कि उसने प्रशासन को लगातार जवाबदेह बनाया. कमियों को रेखांकित किया लेकिन ऐसा करते करते वह प्रशासन मात्र को संदिग्ध बनाता रहा. यह अति थी. अपनी इसी अति को संतुलित करने के लिए या तो सेना के जवानों को हीरो बनाया या अपने रिपोर्टरों को हीरो बनाया.

सेना के एक अफसर ने सेना के हीरोइक्स पर कुर्बान होते मीडिया से जवाब में यह कहा भी कि हम तो अपनी डूयटी कर रहे हैं. चलिए मीडिया ने सेना को हीरो बनाया तो ठीक लगा. सेना के कर्त्तव्यभाव को मीडिया सेवा समझकर तारीफ कर रहा था. वह नहीं समझ सका कि पेशेवर सेना अपना कर्त्तव्य करती है. तारीफ की भूखी नहीं होती.

एक चैनल पर एक एंकर अपने चैनल के रिपोर्टरों कैमरामैनों के अनुभव सुनवा-दिखा रही थी. वे जीरो गांउड से रिपोर्टिंग करके आए थे. ऐसा बता रही थी. कायदे से तो वे अपनी डयूटी ही करके आए थे लेकिन डयूटी को अहसान बताना मीडिया की मध्यवर्गीय स्टाइल है. चूंकि मीडिया अपने अलावा हरेक को संदेहास्पद मानकर चलता है. इसलिए अपनी ही बनाई अति के संतुलित करने के लिए उसे हीरो मानने या गढ़ने पड़ते हैं. राजनेता गलत. राजनीति गलत. सेना सही. उक्त प्रसंग से हमें तो ऐसा लगता है कि कथित जनतांत्रिक चैनल सिविल सोसाइटी की जगह सेना को ही आदर्श मानते हैं और ड्यूटी को अहसान मानते हैं. सेना हमेशा अपना कर्त्तव्य निभाती है. उसे मीडिया की तारीफ नहीं चाहिए.
लेखक सुधीश पचौरी वरिष्*ठ पत्रकार एवं साहित्*यकार हैं. इनका यह लेख सहारा में भी प्रकाशित हो चुका है.
 
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