मूर्ति पूजा से भी मिल सकती है कामयाबी

'MANISH'

yaara naal bahara
मूर्ति पूजा के दौरान अंध विश्वास और विवेक में संतुलन जरूरी है। देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के सामने मत्था टेकने से मनौति पूरी हो जाएगी, यह मान लेना अंधविश्वास है। लेकिन इसमें विवेक जुड़ते ही विश्वास नए रूप में सामने आएगा। महत्वपूर्ण यह कि मूर्ति में हम क्या देख रहे और उससे क्या ले रहे हैं। हिन्दुओं ने मूर्ति में प्राणप्रतिष्ठा इसीलिए करवाई, बुद्ध तथा महावीर की मूर्तियां इसीलिए पूजी गई कि पाषाण में हम वो दर्शन कर लें जो हमारे व्यक्तित्व में अधूरा है। यदि विवेक दृष्टि सही है तो हमें जिस संबल की जरूरत है उसके दर्शन पत्थर की प्रतिमा में हो जाएंगे। जीसस कादस्त की बहुत की सुंदर मूर्ति बनाने वाले से किसी ने पूछा आप इतना सुंदर पत्थर कहां से लाए। उस मूर्तिकार का जवाब था मैंने तो उस पत्थर को चुना जो चर्च बनाते समय रिजेक्ट कर दिया गया था।


जिस पत्थर को फालतू समझकर नकारा गया उस बेकार को मैंने संवारा। क्योंकि जीसस की जो छवि उस मूर्तिकार के मन में थी वही उसने पत्थर में देखी। उसमें से बस आसपास का फालतू पत्थर हटाया तो प्रतिमा बाहर निकल आई। ऐसे ही जीवन में कई फालतू बातों को हम आसपास कर लेते हैं, उन्हें हटाया तो जो सार्थक है वह सामने आएगा। इसी भाव से मूर्ति पूजा की जाए तो प्रतिमाएं दिशा निर्देश, आत्मबल और आनंद का कारण बन जाएगी।
 
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