jassmehra
(---: JaSs MeHrA :---)
कई लोगों को खुद की तारीफ करने की आदत होती है। ऐसे लोग हर समय खुद को दूसरों से बेहतर बताने की और उनको नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। ऋग्वेद के अनुसार, मनुष्य चाहे कितना ही गुणी या सफल क्यों न हो, उसे अपना गुणगान खुद नहीं करना चाहिए। वास्तविक प्रशंसा वहीं होती है, जो की मनुष्य की गैरमौजूदगी में की जाती है।
खुद को दूसरों से श्रेष्ठ बताने वाला मनुष्य अहंकार से भरा होता है। ऐसे लोग कई बार हंसी का पात्र बन जाते हैं और कई बार अपनी इस आदत की वजह से उन्हें अपमानित भी होने पड़ जाता है। इस बात को ऋग्वेद में बताई गई एक कहानी से अच्छी तरह समझा जा सकता है।
ऋग्वेद में बताई गई कथा और श्लोक
>श्लोक
न स्तुयात् स्वयमात्मानं गृहीत्वा वै निजान् गुणान्।
स्तुवन्निनद्रवदात्मानं वामदेवो ललज्जाः वा।।
>कथा
कथा के अनुसार, एक बार वामदेव नाम के ऋषि भगवान इन्द्र की स्तुति को अपनी स्तुति समझने लगे। ऐसा होने से वह आत्मप्रशंसा के भाव से भर गए और खुद ही सबको कहने लगे कि ‘मैं ही प्रजापति मनु हूं, मैं ही सबका देव हूं अर्थात मैं ही सब कुछ हूं, मेरे बिना कुछ भी नहीं’। इस तरह वामदेव ऋषि हर जगह अपना गुणगान करने लगे। बाद में जह उन्हें पता चला की लोग उनकी नहीं बल्कि भगवान इन्द्र की स्तुति कर रहे थे, तब वह बहुत अपमानित हुए। इसी वजह से कहा जाता है कि अपनी प्रशंसा खुद करने से लज्जित होना पड़ता है, इसलिए अत्माप्रशंसा कभी न करें।
खुद को दूसरों से श्रेष्ठ बताने वाला मनुष्य अहंकार से भरा होता है। ऐसे लोग कई बार हंसी का पात्र बन जाते हैं और कई बार अपनी इस आदत की वजह से उन्हें अपमानित भी होने पड़ जाता है। इस बात को ऋग्वेद में बताई गई एक कहानी से अच्छी तरह समझा जा सकता है।
ऋग्वेद में बताई गई कथा और श्लोक
>श्लोक
न स्तुयात् स्वयमात्मानं गृहीत्वा वै निजान् गुणान्।
स्तुवन्निनद्रवदात्मानं वामदेवो ललज्जाः वा।।
>कथा
कथा के अनुसार, एक बार वामदेव नाम के ऋषि भगवान इन्द्र की स्तुति को अपनी स्तुति समझने लगे। ऐसा होने से वह आत्मप्रशंसा के भाव से भर गए और खुद ही सबको कहने लगे कि ‘मैं ही प्रजापति मनु हूं, मैं ही सबका देव हूं अर्थात मैं ही सब कुछ हूं, मेरे बिना कुछ भी नहीं’। इस तरह वामदेव ऋषि हर जगह अपना गुणगान करने लगे। बाद में जह उन्हें पता चला की लोग उनकी नहीं बल्कि भगवान इन्द्र की स्तुति कर रहे थे, तब वह बहुत अपमानित हुए। इसी वजह से कहा जाता है कि अपनी प्रशंसा खुद करने से लज्जित होना पड़ता है, इसलिए अत्माप्रशंसा कभी न करें।