समय ने तीखी छुरी से

Saini Sa'aB

K00l$@!n!
समय ने तीखी छुरी से
आग-पानी-हवा-धरती पर
लिखे है नवगीत के अक्षर!
दूधिया मुस्कान नीमों की
भूमि पर झरती नहीं है
पीपलों की फुनगियों पर अब
बदलियाँ घिरती नहीं है
बज रहा है बाँस का झुरमुट
जल रही है जामुनी दुपहर!
कई वर्षों से थके हारे
आम बौराए नहीं है
नीड़ है सूने, कपोतों ने
पंख फैलाए नहीं है
व्यंजनाएँ शब्द की आहत
हाथ में है अर्थ का पत्थर!
देह के अनुबंध अनचाहे
अब शिथिल होने लगे हैं
खुशी के पल की प्रतीक्षा में
चल रहे ये रतजगे है
काग पंचम राग गाते हैं
कोकिलाओं को मिले तलघर!
 
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