मिर्ज़ा गालिब

उसकी हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ,
ढूंढने निकला हूँ उसे, जिसको पा भी न सकूँ,

ज़ौफ में ताना-ए-अगियार का शिकवा क्या है,
बात कुछ सर तो नहीं, कि उठा भी न सकूँ।

मेहरबाँ हो के बुला लो, मुझे चाहे जिस वक्त,
मैं गया वक्त नहीं हूँ, कि फिर आ भी न सकूँ।
 
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