बरसों हो गए

Saini Sa'aB

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बरसों हो गए
गाँव-घर की दीवाली देखे
माटी के दीए में घी के बीच
रूई की बाती
पहला दीया देवालय में
जलाकर लौटते थे हम
कहावत झूठ हो जाती थी
चिराग पहले घर में जलाओ
फिर मस्जिद में जलाना
आज बरसों से पहला दीया
अपने ठिकाने से दूर
जल रहा है
घर के बड़े बेटे की तरह
और उसकी रोशनी में कहीं
कोई उजास नहीं है
जबसे चार कदम आगे बढ़ आए
छूट गया सबकुछ बहुत पीछे
भाईचारा, अपनापन, पड़ोसी धर्म
इनके मायने खो गए है
चिराग तले रोशनी की तरह,
स्मृतियों में रह गए हैं घरौंदे
जिनमें हर दिन होली और रात
दीवाली के उजाले में
वैमनस्यता के साये से भी अस्पृश्यता
निभाते हुए गुज़रती थी मोहब्बत
किसी अल्हड़ गवई लड़की की तरह,
वो घरौंदा मुझे लौटा दो मेरे वक़्त
मैं सचमुच दीवाली मनाना चाहता हूँ
इसे समझो तुम तार,
मत समझो पाती।
 
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