पानी बरसा रात

Saini Sa'aB

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पानी बरसा रात

पानी बरसा रात
हवा में
भीगी-भीगी सी मिठास है

फूलोंवाली परी
मेंह का शाल लपेटे
खड़ी घाट पर
गर्मी भर झुलसा था
पूरी रात नहाया है पूजाघर

अपना
चंपा भी तो
बरखा- बूँदों का पहने लिबास है

एक नदी भीतर भी उमड़ी
उसमें साँसें नहा रही हैं
धूप सुबह की बाँच रही
जो ग़ज़ल
घटा ने रात कही है

उसे सुन रही
आँखें मूँदे
फिर से जनमी हरी घास है

उधर अभी भी
इन्द्रधनुष के पुल पर
छितरी हुई घटाएँ
झुर्री- झुर्री आँक रहा
बूढ़ा बरगद
सावनी छटाएँ

थकी देह में
जाग रही फिर
आदिम युग की घनी प्यास है​
 
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