दाग देहलवी

हजारों ख्वाहिशें ऐसी, कि हर ख्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले,

निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं, लेकिन
बहुत बेआबरू होकर, तेरे कूचे से हम निकले,

मुहब्बत में नहीं है, फर्क जीने ओर मरने का,
उसी को देख कर जीते हैँ, कि जिस काफिर पे दम निकले।
कहाँ मैखाने का दरवाज़ा गालिब, ओर कहाँ वाईज़,
वस इतना जानते हैँ कल वो जाता था कि हम निकले।
 
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