जोगी

Saini Sa'aB

K00l$@!n!
जोगी

जोगी! क्यों भागे हो घर से ?

जटा-जूट धारण करते रहे
तन पर भस्म लगाये
समझाते हो दर्शन
ढाई आखर समझ न पाये

ज्ञान बाँटते हो ऊपर से!

चिलम खींचकर गहरा-गहरा
धुआँ छोड़ रहे हो
अपने भीतर के सुगना की
गर्दन तोड़ रहे हो

काँप रहा है पंछी डर से।

धुनी रमाते, हठ करते हो,
करते हो कृष-काया
नहीं छोड़ती साथ तुम्हारा
इतने पर भी माया

तुम रोते हो दुनिया हरषे।

चार धाम तीरथ कर आये
कितना पुण्य कमाया
जितना जोड़ा और दोगुना
उससे अधिक गँवाया

मुक्ति मिलेगी इतने भर से ?

मन को पत्थर कर लेने से
क्या कुछ मिल जाता है ?
जहाँ नमी हो वहीं प्रेम का
तो बिरवा खिलता है

मरूथल में भी मेह न बरसे।
 
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