जल रहा है मन

Saini Sa'aB

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जल रहा है मन

जल रहा है मन
धधकती आग जैसा
और काया जल रही है मोम जैसी

एक पग चलकर
गिनीपिग से ठिठकते
और आहट पर
पलटते दो कदम
रौशनी में चौंधियाती
आँख लेकर
कब तक जिएँगे
और चलने का वहम
एक नश्वर देह में कैसे सँभाले
आत्मा जो मिली
शाश्वत व्योम जैसी

संहिताएँ ख़ाक हैं
इतिहास की अब
वर्जनाएँ बँध गई हैं
पाँव में
जुए को ही मानकर के महाभारत
रोज़ गीता को
लगाते दाँव में
गले के कफ में फँसी
दम तोड़ती है
एक अक्षर ब्रह्म की

ध्वनि ओम जैसी
मुट्ठियाँ तनकर
हवा में टँक गई हैं
और नीचे पैर
दलदल में फँसे हैं
बाँटते सबको
सुबह शुभकामनाएँ
शाम होते
हाथ लगते हादसे हैं
दिन, महीने, साल-
मनमाना हुए हैं
जी रहे हम एक आयु
विलोम जैसी
 
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