जब जब भी झंझा

Saini Sa'aB

K00l$@!n!
जब जब भी झंझा
जब-जब भी
झंझा की दीप से ठनी है,
तब-तब ही
कुहरे ने लिखी चाँदनी है।

द्वंद्व तो चिरंतन है
ज्योति और तिमिर का,
बिजली ने पथ नापा
शिशिर के शिविर का।
धुंध और, किरणों के बीच कब बनी है?

बूढों को चिंता है
यह पिछली पीढी़,
चढ़ न जाए उन्नति की
एक नई सीढ़ी।
उगती हिमखंडों, पर नई रोशनी है।

धरा तो बह जाती
टूटता किनारा,
पानी ने मानी कब पर्वत की कारा?
धूप पर
कुहासे की भौंह क्यों तनी है
 
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