ग़ज़ल

jassmehra

(---: JaSs MeHrA :---)
अब मेरा दिल कोई मज़हब न मसीहा माँगे,
ये तो बस प्यार से जीने का सलीका माँगे;

ऐसी फ़सलों को उगाने की ज़रूरत क्या है,
जो पनपने के लिए ख़ून का दरिया माँगें;

सिर्फ़ ख़ुशियों में ही शामिल है ज़माना सारा,
कौन है वो जो मेरे दर्द का हिस्सा माँगे;

ज़ुल्म है, ज़हर है, नफ़रत है, जुनूँ है हर सू,
ज़िन्दगी मुझसे कोई प्यार का रिश्ता माँगे;

ये तआलुक है कि सौदा है या क्या है आख़र,
लोग हर जश्न पे मेहमान से पैसा माँगें;

कितना लाज़म है मुहब्बत में सलीका ऐ'अज़ीज़',
ये ग़ज़ल जैसा कोई नर्म-सा लहज़ा माँगे।
 
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