आपकी महफिल

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पत्थर का मेरी ओर तो आना जरूर था
मैं ही गुनहगारोँ में इक बेकसूर था

सचाई आग ठहरी तो लब जल के रह गए
हकगोई पर हमें भी कभी क्या ग़रूर था

शबनम पहन के निकले थे शोलोँ के काफिले
देखे पोशाक के नीचे ये किस को शऊर था

बैठा हुआ था कोई सरे-राह-आरज़ू
इक उम्र की थकन से बदन चूर-चूर था

ठहरा हुआ है एक ही मंजर निगाह में
इक आधा खुला दरीचा था इक सैलाबे-नूर था

बनकर जबान बोल रहा था बदन तमाम
समझे न हम तो अकल का अपना कसूर था
 
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