i just want to share a moment with you...
कुच्छ दद्खाने खफा हैं मेरी मुझसे क्यों अबतक………….
कुच्छ दद्खाने खफा हैं मेरी मुझ से क्यों अबतक,
क्यों रंजिशों के ज़ख्म कुरेद देता है हरबार, यहे जुनूनी ज़हन मेरा
जो कभी वक़्त की महरम ने दफ़न कर दिए थे, इस पाक ज़मीन की नीचे ,कुछ इधर भी और कुच्छ उधर भी
आज भी बालिमरण की उन तंग गललियों का जीकर ताज़ा है ,उधर भी बात उस बेफिकर तफरी की, अनारकली बाज़ार की महफ़िल में, होती है इधर भी
इस दहशत की ठंडी खुश्क हवैएँ मोजूद हैं कभी मरी में तो , गुलमर्ग में कभी
दफ़न करना है इस हवानियत को, जो एक, सियासी कफ़न में लिपटी है , ये तह कर लिया अबसे ,इस नस्ल ने, इधर भी और उधर भी,
लव्स बयान नहीं कर सकते इस रूहानी रिश्ते को, जो कभी बहा था सुर्ख लहू बनकर , हमारे मुस्तकबिल के लिए, उस तरीक के गवाह शरीक हैं, आज भी ,इस तरफ भी और उस तरफ भी
किसी चार द्वारी के कोने में गुनगना रहा है कोई तरनुम यहाँ की,
और नज़्म उधर के बयां होतीहै, हर वक़्त होटों पर इधर भी
बच्चपन की उस खiला की सेवियां याद आतें हैं, हर इद पर, इधर भी
एक चाचा के हलवे को यiद्करते हैं, हर बार, कुच्छ उधर भी
फसल पूँछ रही है हर बार इस नदी के उन दो किनारों से,क्या फरक है उस की मिठास में ,इस तरफ का उस तरफ से
क्यों बचपान की कोई धुंधली याद कर देती है एक बुर्ज़ुर्ग वालिद की आंखें नम,उस तरफ भी और इस तरफ भी
लहू बनकर बहेi हैं ,कई बार, अश्क कुच्छ उधर भी और कुच्छ इधर भी, याद रख हर ज़क्म परा है इस रूह के जिस्म पर हर बार, वोह था एक ही
लव्सों में बयान करते थे, ये जज़्बात इस वजूद के मुकमिल होने का,
तेरे गर्म अस्कों की नमी को मुह्सूस किया अपने गIल पे,इसबार, तो क्यों कुछ एहसास हुआ अपने अधूरेपन का.
i hope you will like it,
a sheep from the same flock,
satvir
कुच्छ दद्खाने खफा हैं मेरी मुझसे क्यों अबतक………….
कुच्छ दद्खाने खफा हैं मेरी मुझ से क्यों अबतक,
क्यों रंजिशों के ज़ख्म कुरेद देता है हरबार, यहे जुनूनी ज़हन मेरा
जो कभी वक़्त की महरम ने दफ़न कर दिए थे, इस पाक ज़मीन की नीचे ,कुछ इधर भी और कुच्छ उधर भी
आज भी बालिमरण की उन तंग गललियों का जीकर ताज़ा है ,उधर भी बात उस बेफिकर तफरी की, अनारकली बाज़ार की महफ़िल में, होती है इधर भी
इस दहशत की ठंडी खुश्क हवैएँ मोजूद हैं कभी मरी में तो , गुलमर्ग में कभी
दफ़न करना है इस हवानियत को, जो एक, सियासी कफ़न में लिपटी है , ये तह कर लिया अबसे ,इस नस्ल ने, इधर भी और उधर भी,
लव्स बयान नहीं कर सकते इस रूहानी रिश्ते को, जो कभी बहा था सुर्ख लहू बनकर , हमारे मुस्तकबिल के लिए, उस तरीक के गवाह शरीक हैं, आज भी ,इस तरफ भी और उस तरफ भी
किसी चार द्वारी के कोने में गुनगना रहा है कोई तरनुम यहाँ की,
और नज़्म उधर के बयां होतीहै, हर वक़्त होटों पर इधर भी
बच्चपन की उस खiला की सेवियां याद आतें हैं, हर इद पर, इधर भी
एक चाचा के हलवे को यiद्करते हैं, हर बार, कुच्छ उधर भी
फसल पूँछ रही है हर बार इस नदी के उन दो किनारों से,क्या फरक है उस की मिठास में ,इस तरफ का उस तरफ से
क्यों बचपान की कोई धुंधली याद कर देती है एक बुर्ज़ुर्ग वालिद की आंखें नम,उस तरफ भी और इस तरफ भी
लहू बनकर बहेi हैं ,कई बार, अश्क कुच्छ उधर भी और कुच्छ इधर भी, याद रख हर ज़क्म परा है इस रूह के जिस्म पर हर बार, वोह था एक ही
लव्सों में बयान करते थे, ये जज़्बात इस वजूद के मुकमिल होने का,
तेरे गर्म अस्कों की नमी को मुह्सूस किया अपने गIल पे,इसबार, तो क्यों कुछ एहसास हुआ अपने अधूरेपन का.
i hope you will like it,
a sheep from the same flock,
satvir