सुर्ख लहू के कुछ बेपोशिदा स च ......

satvir62

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सुर्ख लहू के कुछ बेपोशिदा ......




फिर से पिछली गली से निकलने की कोशिश की थी मैंने इस बार भी, दोस्त मेरे
फिर इस वक्फे से मुलाकात हुई तो कुछ एहसास आया जिन्दा होने का मुझको...

क्यूँ तेरे गहरे रंग की गर्माइश नहीं सूख सकी अब तक,
हर सुबह की पह्सiनी पे चढ़, देख रहा है यहे मुझको... , बहुत शरमदार हो कर
रोज़ बेह्ज़ुबन शाम के सवालों को सुनता हूँ, इस रंग में दुबे है, न चाहते हुए भी
कोई हरकत रगों में है के नहीं, फर्क परता नहीं इसके वजूद को,
मेरे अश्कों में न देखi दिया इस बार भी, येही शिकायत है इससे अपने आप से
इससे मज़हब या कॉम के जज्बे की ज़रुरत नहीं है मुकमल साँस लेने के लिए
किसी अजनबी शक्श की मुस्कराहट का सबब अगर बन पाए ,
तो शायद कुछ लम्हे और जूद जांए इस जिंदगी में मेरी,
फिर भी ये लावारिस लाश जो एक खुश्क लाचारी के कफ़न में पोशीदा है पूछ रही है मुझको
नहीं चाहिए किसी की मोजूदगी का एहसास इसके दफ़न होने के वक्त
ऊस कौमी जिद का एक जज्बा मिल सके तो चैन से सो सकेगा वोह फिर से इस पकीजः ज़मीन के नीचे
वोह सुर्ख छीनते तुम्हारी रूह पर पर्हें थी या नहीं, उस बार ये फर्क परता नहीं था अब तक
ऊस ज़ख्म को फिर कुरेद देने की ज़रुरत है इस बार, यह तह है, तुम फैसला करो या न करो , दोस्त मेरे

 
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