जवाब देंगे उन चाँद उन्काहे सवालों का.... ......

satvir62

Member
जवाब देंगे उन चाँद उन्काहे सवालों का.... ......

नहीं मंस्जूर है यह सदियों पुराणी बेहोश जिन्द्गादी ,
उस सुस्त सफ़ेद चादर में लिपटी एक कुश्क बेबस नींद की
रूह के दरवाज़े पैर एक दस्तक देनी है इस बार,हर सिसिसकी सांस से जोड़ी है जो ,
ये तै कर लिया है इन दाद्क्नों के एहसास ने , बाकि बच्ची हुई जिंदगी के लिए मेरी
नहीं करना है वोह फर्क ऊस सुर्र्ख लाली में डूबे एक माजी की उन्देकी सचाई का ,किसी रिश्ते या मज्ज्हब के खोकले वजूद पैर,
सुलुगते शोले रखने हैं अपनी रूह की हथेली पैर,इस उन्देरूनी दर्द को महसूस करने के लिए,
इस जिस्म को रूहानी लिबास पहनना है फिर से एक बार, जो आनंद मैथ से शुरू हुई ,उस क्रांति का


डेक इस देशात में इस इंतहा लहू की नदी को बता हर बार ,अश्क बहाना भी है ज़रूरी तेरा
लेकिन गूंद कर उनको इस दर्द की मिति में ,करना हैं निर्माण एक नहीं फौलादी नस्ल का,
देख इस तूफ़ान के कुच्छ दुन्दले पदचिनो को , कुदरत के अस्लूँ से सबक लेना है निश्चित ,तेरा
एक बच्ची ओस की बूँद ,जो कर रही है इन्तेज़ार उस अपरिचित पत्ते पर,भोर की पहली किरणों से आलिंगन करने का,
जन लेना है , जिंदगी की इब्तदा करने के लिए क्यों हैं इतनी व्याकुल,इस बार
हर रिश्ते की वोह बुनियाद रख लेनी हैं ,जो किसी गरज पैर कायम नहीं होगी कभी
जो सिर्फ जिंदा रहेगी एक दुसरे की दध्कानों के एक नाहे एहसास की मोजूदगी से

नहीं परवाह इस दहशत में पनपती हैवानि़त की, नुकशान हुआ किसका ,य्येह फर्क परता नहीं अब से मुझको
सिर्फ महसूस करना है हर सांस को ,मेरे
इस जिन्द्गगी का एक उनकः बुनियादी रिश्ता ,सिर्फ एक सुरक रंग की गर्माइश की बिना पैर मोह्जूद है जो
एक योधा बन टूट पर्ण है इस उन्चैये महाबरत में,
छलनी कर शीना अपना ऐसे कई ताजा ज़ख्मों से,
,देना है उस उन्पूचे कड़वे सवाल का जवाब अब , इस चक्रवयुक को निरंतर छेद कर
जो कभी दिया ठाट उस क्रांति के लौ ने, कभी डंडी तोह काकोरी में कभी कुच्छ अरसा पहले,
फिर से उस गहरी रात के बाद की एक नए सूर्य का करना है इस्तेकबाल देकर अपनी बेफिक्री और बेबसी का मैला कफ़न
फर्क परता नहीं कोई मोह्जूद है की नहीं इस लम्हे पे, रूह से वाबस्ता हैं ये तारिक की पन्ने
धड़कनें बाकि जिंदगी की कितनी हैं इस जिस्म के आगोश में, फर्क परता नहीं अब
, इन धडकनों में करनी है मोह्जूदी इन जज्बे की , मुझे हर बार, अबसे, यह एहसास ज़रूरी है बस
यूँ नहीं करनी अपनी जिन्गदी गुमनामी में बसर फिरसे,
किसी म्व्ह्त्व कांक्षा की चार द्वारी में क़ुऐद होकर , मुझे
इस जज्बे को पहनना है वोह रूहानी लिबास, फिर से बसंती रंग का
, चेर एक नहीं ज़ंग-इ- आजादी का आगाज़
इस ज़हनी ज़ंजीर को तोर फिर ,रखनी है निएवे हमने, उस नहीं फसल की

किया है एक फैसला इस बार हुम्सब्ने ,एक दुसरे के मुस्तकबिल के लिए
 
Top