ओठों पर शतदल खिले,

Saini Sa'aB

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ओठों पर शतदल खिले, गालों खिले गुलाब
हरसिंगार बन झर रहे, अंग-अंग अनुभाव।

कोयल ने जब से कहा, धरा आम ने मौर
बल्लरियों के हो गए, रंग-ढंग कुछ और

खिली कली कचनार की, दहका फूल पलाश
नव लतिकाएँ बाँचती, ऋतु का नया हुलास।

बैठो दो क्षण बाँधले फिर हातों में हात
जाने कब झड़ जाएँगे, ये पियराने पात

कस कर चिपके डाल से, सुनकर पियरे पात
आएँगे ऋतुराज कल., लेकर स्वर्ण प्रभात।

वन-पर्वत-हिम नद विकट, सागर मरुथल पार
जहाँ न अंकुर ऊगता, वहाँ फूलता प्यार।

जाने क्या कुछ कह गया, भौराँ ऐसी बात
यह मोली कचनार फिर रोई सारी रात

पानी पर हमने लिखे, कभी गीत के बोल
तुमने चंचल हाथ से, दिए रेत पर ढोल।

मत ऐसी बातें करो, दुख की बढ़े लकीर
सुन कर ठठ्ठा करेगी यह दुनियाबे पीर।

बूँद गिरी आकाश से, चली सिंधु की ओर
एक आदि का सूत्र है, एक अंत का छोर।

आँधी-पानी-बिजलियाँ, झरते रहे अंगार
चट्टानों को तोड़कर, बही नदी की धार।

बीज-बीज वटवृक्ष है, बूँद-बूँद में सिंधु
सीप-सीप के ह्रदय में, मोती के अनुबंध
 
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