मैं वहीं हूँ,

Saini Sa'aB

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मैं वहीं हूँ, जिस जगह पहले कभी था
लोग कोसों दूर आगे बढ़ गए हैं।

ज़िंदगी यह एक लड़की साँवली-सी
पाँव में जिसने दिया है बाँध पत्थर
दौड़ पाया मैं कहाँ उनकी तरह ही
राजधानी से जुड़ी पगडंडियों पर

मैं समर्पित बीज-सा धरती गड़ा हूँ
लोग संसद के कंगूरे चढ़ गए हैं।

तंबुओं में बँट रहे रंगीन परचम
सत्य गूँगा हो गया है इस सदी में
धान पंकिल खेत जिनको रोपना था
बढ़ गए वे हाथ धो बहती नदी में

मैं खुला डोंगर-सुलभ सबके लिए हूँ
लोग अपनी व्यस्तता में मढ़ गए हैं।

खो गई नदियाँ सभी अंधे कुएँ में
सिर्फ़ नंगे पेड़ हैं लू के झँबाए
ढिबरियों से टूटनेवाला अंधेरा
गाँव भर की रोशनी पी, मुस्कुराए

शालवन को पाट, जंगल बेहया के
आदतन मुझ पर तबर्रा पढ़ गए हैं।
 
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