उठो!

Saini Sa'aB

K00l$@!n!
उठो!
आधी रात
फिर ज़िंदगी को ढूँढने चलें
बार-बार फिसल जाती है हाथों से
छटपटाती
ज़िंदा मछली की तरह
साँसों की तलाश में
भीड़ों के अंधेरे सागर में
भीड़ जो बरसों से अकेलेपन की परिचायक है
और हथेलियाँ जहाँ
रिसने लगता है नेह गाँठों के बीच से
बुझने लगते हैं दिये
घुटने लगता है दम
न इस करवट चैन
न उस करवट
करवटें बदलते
यों ही कटती है ज़िंदगी
कि ये ऊँट भी न जाने किस करवट बैठे।
 
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