हर शाम चराग़ों-सा

Saini Sa'aB

K00l$@!n!
हर शाम चराग़ों-सा

हर शाम चराग़ों-सा जलाया गया हूँ मैं
होते ही सुब्ह रोज़ बुझाया गया हूँ मैं

चुनता रहा हूँ फूल मैं ख्वाबों के रात भर
ख़ारों के बिस्तरों पे सुलाया गया हूँ मैं

आँखों से मेरी बर्फ़ के दरिया रवॉँ हुए
शोलों की वादियों में घुमाया गया हूँ मैं

होती है ज़ोरे-जब्र की भी इंतिहा कोई
क्यूँकर हँसा-हँसा के रुलाया गया हूँ मैं

मेरे ही साथ क्यूँ किया कि़स्मत ने ये मज़ाक
बैठा के अर्श पे जो गिराया गया हूँ मैं

जिसका नहीं जवाब मैं वो इक सवाल हूँ
महफि़ल में रोज़-रोज़ उठाया गया हूँ मैं

सहरा के होंठ पर उगा इक लफ़्ज़ 'प्यास' हूँ
लिख-लिख के पानियों पे मिटाया गया हूँ मैं​
 
Top